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________________ केवली और मन [ १२५ बहुत से जैन शास्त्र प्रचलित मान्यता का समर्थन करते हैं यह ठीक है पर जब कोई प्रचलित मान्यता का विरोधी उल्लेख किसी शास्त्र में मिल जाता है तमी प्रचलित मान्यता अन्धभक्ति के कारण कीगई लीपापोती है, यह बात साफ हो जाती है । लीपापोती करनेवाले अपनी समझ से लीपापोती करते हैं पर सत्य जब धोरेखेसे कहीं अपनी चमक बता जाता है तब उसका मूल्य बहुत बड़ा होता है । नन्दी सूत्र का उपयुक्त उल्लेख ऐसा ही है । नंदीसूत्र के अन्य उल्लेख या अन्य ग्रंथों या टीकाओं के उल्लेख से जब नंदीसूत्र के उक्त वाक्यों का समन्वय किया जाता है तब उसमें यह आपत्ति यह है कि अगर नोइन्द्रिय प्रत्यक्ष का अर्थ आत्मिक प्रत्यक्ष किया जाय तो मानसप्रत्यक्ष किस भेद में शामिल किया जायगा ? इन्द्रिय प्रत्यक्ष के तो पाँचही भेद हैं, उनमें मानस प्रत्यक्ष शामिल हो नहीं सकता। आर नोइन्द्रिय प्रत्यक्ष का अर्थ आत्मिक प्रत्यक्ष किया गया है तब मानस प्रत्यक्ष का भेद खाली रह जाता है। शास्त्रों में इतनी मोटी भूल हो नहीं सकती। इसलिये नोइन्द्रिय प्रत्यक्ष का अर्थ मानस प्रत्यक्ष ही करना चाहिये । और केवलज्ञान को मानस प्रत्यक्ष का भेद मानना चाहिये। [४ ] तेरहवें गुणस्थान में केवली के ध्यान बतलाया जाता है । ध्यान बिना मन के हो नहीं सकता इसलिये भी केवली के मन मानना पडता है । तेरहवें गुणस्थान के सूक्ष्मक्रिया प्रतिपाती ध्यान में वचनयोग के समान मनोयोग का भी निरोध किया जाता
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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