________________
२२
जैनधर्म-मीमांसा
स्वाभाविक जीवन बिताना भी कठिन है। भले ही यह कानूनी संयम आत्मिक संयमकी बराबरी न कर सके; परन्तु इससे इतनी बात सिद्ध होती है कि संसारकी सुख-वृद्धि या दुःख-हानिके लिये संयम अनिवार्य है। सरकार रूपी इमारतें इसी संयमकी नींवपर खड़ी होती हैं। हवापानीके समान संयम भी जीवनके लिये आवश्यक है। __ इस संयमकी पूर्णता तो पूर्ण आत्म-विकासमें ही हो सकती है, परन्तु व्यावहारिक दृष्टिसे इस संयमकी पूर्णता-अपूर्णताका विचार करना है । जीवन-निर्वाहके लिये अपने उचित हिस्सेसे अधिक सामग्रीका उपयोग न करना पूर्ण इन्द्रिय-संयम है । जो इससे अधिक सामग्रीका उपभोग करे किन्तु मर्यादा रक्खे, वह अपूर्ण संयमी है । जो मर्यादा न रक्खे, वह अविरत या असंयमी है । इसी प्रकार जो मनुष्य जीवनको रखनेके लिये अनिवार्य हिंसासे अधिक हिंसा नहीं करता वह प्राणि-संयमकी दृष्टिसे पूर्ण संयमी है। जैसे श्वास लेनेमें, चलने-फिरनेमें, शौचादिमें हिंसा अनिवार्य है । यद्यपि इन कार्योंमें यत्नाचार करना आवश्यक है, फिर भी कुछ न कुछ द्रव्य-हिंसा अवश्य होगी। यह अनिवार्य है। इस अनिवार्य हिंसासे जो अधिक हिंसा करे, किन्तु मर्यादा रक्खे वह अपूर्णसंयमी है । जो अमर्याद हिंसा करे, वह असंयमी है । इसी प्रकारके और भी उदाहरण दिये जा सकते हैं । ___ इस चर्चासे यह बात सिद्ध हो जाती है कि धर्ममें बताये हुए ये दोनों संयम, शरीर शोषक, जीवन-नाशक, और परलोकमें ही फल देनेवाले नहीं हैं, किन्तु इनसे जीवन और शरीरकी रक्षा है और परलोकके सुखकी अपेक्षा ऐहिक सुखके लिए इनकी आवश्यकता अधिक है । इसलिये संयमका ध्येय दुख नहीं, सुख है।