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________________ दर्शनाचारके आठ अङ्ग ३२३ कल्याणमार्गकी सीमापर पहुँचा हुआ है, वही देव है । वह किसी व्यक्ति - विशेषको देव माने या न माने, परन्तु वह अपना आदर्श समझता है । उस आदर्शपर कोन व्यक्ति पहुँचा है इस बातका निर्णय न होनेपर भी वह देवपर विश्वास करता है । देवत्वपर विश्वास करना ही देवपर विश्वास करना है । जिन व्यक्तियोंको हम देव या महापुरुष कहते हैं उनका वास्तविक इतिहास उपलब्ध नहीं है । जो कुछ इतिहास उपलब्ध है वह उनका लौकिक प्रभाव है और उसमें भी अतिशयोक्तिपूर्ण कल्प्रित वर्णन बहुत है । जिन घटनाओंसे किसी महापुरुषका महत्त्व जाना जाता है उन घटनाओंका स्पष्ट विवेचन मिल नहीं सकता और न उन घटनाओं को साधारण जनता महत्त्व देती है । वह अलौकिक बातों को महत्त्व देती है परन्तु देवत्वका उनसे कुछ सम्बन्ध नहीं होता । महात्माओंके अतिशयोक्तिपूर्ण विवेचनोंका एक कारण तो यह है कि लोगोंकी रुचि ही इस तरहकी होती है। दूसरा कारण यह है कि भविष्य में साधारण लोग भी देवत्वका दावा न करने लगें इसलिये अलौकिक अतिशयोंकी असंभव शर्त लगा दी जाती है । इसीलिये २४ आदि संख्या भी निश्चित कर दी जाती है जिससे अगर कोई भविष्य में तीर्थङ्कर होनेका दावा करे तो यह कहकर उसे दूर कर दिया जाय कि अब २५ वाँ हो नहीं सकता आदि । इन सब कारणों से किसी महात्माका ठीक ठीक चरित्र मिलना कठिन हो जाता है । इसलिये सम्यग्दृष्टि 'देवत्व क्या है ' इस बातका निर्णय कर लेता है । ' कौन व्यक्ति देव था और कौन नहीं था, ' यह प्रश्न ऐतिहासिक है, न कि धार्मिक । धार्मिक दृष्टिसे तो देवत्व के निर्णयकी आवश्यकता है न कि देवकी, और यह काम कल्याणमार्गके निर्णयसे हो जाता है । 1
SR No.010098
Book TitleJain Dharm Mimansa 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1936
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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