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जैनधर्म-मीमांसा
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एक मनुष्य सम्पत्ति और अधिकारको प्राप्त करके महान बनता है, जब कि दूसरा मनुष्य जगतकी सेवा करके महान बनता है । दूसरी तरहकी महत्ता स्वपरहितकारी होनेसे प्रभावनाके योग्य है । इसीलिये लोग राजाओं की अपेक्षा महात्माओंकी पूजा अधिक करते हैं और महात्माओंकी पूजा तो उनके मरनेके बाद भी करते रहते हैं । इसका मतलब यह है कि वे श्रीमानों और अधिकारियोंको यह बतलाना चाहते हैं कि जगत्सेवक महात्माओंके सामने तुम्हारी महत्ताका कुछमूल्य नहीं है । इसलिये इसे प्रभावना कहना चाहिये । परन्तु जब इस प्रकारकी प्रभावना में श्रीमान लोग भी शामिल होने लगे और उसमें, प्रच्छन्न या अप्रच्छन्नरूपमें, महात्माओंकी महत्ता के बहाने उनकी महताका प्रदर्शन होने लगा, सम्पत्ति और अधिकारके समान प्रभावना भी महत्ताको दिखलानेका एक द्वार बन गई, तब वह वास्तविक प्रभावना न रही । ऐसी प्रभावनाको देखकर लोगोंके हृदय में किसी महात्माके विषयमें आदर नहीं होता किन्तु प्रभावकोंके वैभवको देखकर ईर्ष्या पैदा होती है । ऐसी अवस्था में वह प्रभावना नहीं कही जा सकती । जिस प्रभावना में ऐसा विष मिल जाय वह विषमिश्रित दुग्ध के समान त्याज्य है ।
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जिस प्रभावना में साम्प्रदायिक विष मिल जाय वह प्रभावना भी त्याज्य हो जाती है । किसी महात्माको इसलिये पूजना कि उसने हमारा उपकार किया है एक बात है, और इसलिये पूजना कि उसने जगत्का उपकार किया है दूसरी बात है । पहिली पूजा कृतज्ञतासूचक है, दूसरी प्रभावनासूचक है। दोनों ही अच्छी हैं परन्तु दोनोंको अपने स्थानपर ही रहना चाहिये । कृतज्ञता अगर प्रभावना समझी