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जैनधर्म-मीमांसा
नहीं । अन्यथा वह अविवेक हो जायगा । सदाचारीसे वात्सल्य रखना सदाचारसे वात्सल्य रखना है । यह वात्सल्य व्यक्तिगत नहीं किन्तु गुणगत है । गुणगत वात्सच्य विवेकका फल है जब कि व्यक्तिगत वात्सल्य मोहका फल है ।
प्रश्न – फिर भी यह साम्प्रदायिताका पोषक तो है ही ।
उत्तर— नहीं, जगत्की सेवा करना, दया रखना, सत्य बोलना आदि कल्याणमार्गके जितने अंग ह वे किसी सम्प्रदायकी मौरूसी - सम्पत्ति नहीं हैं | सभी सम्प्रदायोंमें ये सब अंग पाये जा सकते हैं । सम्यग्दृष्टि वात्सल्यकी पात्रता, किसी सम्प्रदाय में नहीं किन्तु, अहिंसा सत्यादिमें रहती है । वह जैन, बौद्ध, वैष्णव, शैव, शाक्त, ईसाई, मुसलमान आदि किसी सम्प्रदायमें या दिगम्बर श्वेताम्बर, - हीनयान - महायान, रामानुज - बल्लभ, प्रोटेस्टेन्ट - रोमन कैथॉलिक, शियासुन्नी आदि किसी उपसम्प्रदायमें अपने वात्सल्यको कैद नहीं करती । प्रश्न – सम्प्रदायोंमें कैद न रहना भी तो एक सम्प्रदाय है ।
उत्तर - जिस प्रकार अनेकान्त भी एक एकान्त है, अवक्तव्य भी 'अवक्तव्य' शब्द से वक्तव्य है, उसी प्रकार 'असम्प्रदाय' भी एक सम्प्रदाय कहा जा सकता है । सम्प्रदाय कोई बुरी वस्तु नहीं है, किन्तु सम्प्रदाय में जो एकान्त-दृष्टि है वह बुरी है । साम्प्रदायिकता से मनुष्य दूसरोंको सिर्फ इसीलिये बुरा कहने लगता है कि वे दूसरे हैं और अपनी हर एक बात को सिर्फ इसीलिये अच्छा कहने लगता है कि वह अपनी है । यह साम्प्रदायिकताका विष है। यह विष निकल जानेपर जो अवशिष्ट सम्प्रदायांश है वह बुरा नहीं है । साम्प्रदायिकता विष आनेपर 'असम्प्रदाय' नामका सम्प्रदाय भी भयङ्कर हो