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________________ दर्शनाचारके आठ अङ्ग ३१३ पैदा किया है और जगत्कल्याणके मार्ग में खर्च कर रहा है । इसी प्रकार किसी विद्वान्का इसीलिये आदर न करना चाहिये कि वह विद्वान है किन्तु इसलिये करना चाहिये कि वह विद्वत्ताका सपदुपयोग, अर्थात् कल्याणमार्गमें उपयोग करता है । इसी प्रकार किसी तपस्वीकी इसीलिये प्रशंसा न करना चाहिये कि वह तपस्वी है किन्तु इसलिये करना चाहिये कि उसका लक्ष्य विश्वकल्याणका है । यही बात कलाकार, वैज्ञानिक, डॉक्टर आदि सबके विषयमें कही जा सकती है । प्रश्न – श्रीमान्, विद्वान्, तपस्वी आदिकी अमुक दृष्टिसे प्रशंसा करना और अमुक दृष्टिसे प्रशंसा न करना इससे स्थितिकरण - अंगका क्या सम्बन्ध है ? किसीकी प्रशंसा - अप्रशंसा से कोई गिरता हुआ मनुष्य कैसे सम्हल सकता है ? 1 उत्तर-धर्म सुखके लिये है । विश्वकल्याणकी भावना के विना न हम सुखी हो सकते हैं न जगत्को सुखी कर सकते हैं । जितने अधिक प्राणी ऐसी भावना वाले होंगे हम सब उतने ही अधिक सुखी होंगे । धर्मप्रचारके लिये, अर्थात् सुखकी वृद्धिके लिये, ऐसे मनुष्यों की 1 संख्या बढ़ाना चाहिये | अब अगर हम विश्वकल्याणकी भावनाका विचार नहीं करते किन्तु धन, विद्या, कला आदिको महत्त्व देते हैं तो इसका फल यह होता है कि लोग कल्याणमार्गपर उपेक्षा करके धन, विद्या, तप आदिके पीछे पड़ जाते हैं । जो कल्याणमार्गपर जा सकते हैं वे नहीं जाते, जो जा रहे हैं वे लौट आते हैं। अगर हम लोगोंको कल्याणमार्गमें ले जाना चाहते हैं, और जानेवालोंको लोटाना नहीं चाहते हैं, तो हमारी दृष्टिमें, हमारे व्यवहार में, कल्याणमार्गको
SR No.010098
Book TitleJain Dharm Mimansa 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1936
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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