SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 316
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३०२ जैनधर्ममीमांसा नहीं हो सकता। हमसे अच्छा होनेपर वह हमसे अच्छा ही कहलायगा, पूर्ण गुरु नहीं । बल्कि जो पूर्ण गुरु न होकर भी पूर्ण गुरुत्वका दावा करता है वह हमसे भी खराब है क्योंकि वह घोर मायाचारी है, जबकि हम मायाचारी नहीं हैं। इसलिये 'जो हमसे अच्छा वह हमारा गुरु ' इस सूत्रको बहुत सम्हालकर विवेकके साथ काममें लेना चाहिये। ___ कुछ लोग कहते हैं कि जो दोष हममें हैं उनकी दूसरोंमें समालोचना करनेका हमें क्या हक है ? यह ठीक है, परनिंदा और आत्मप्रशंसाकी दृष्टिसे हमें दूसरोंके दोषोंकी आलोचना करना ही न चाहिये, भले ही वे दोष हममें हो चाहे न हों। जो दोष हममें हैं वे दोष दूसरोंमें भी हों या कम हों परन्तु यदि वे धूर्ततासे अपनेको निर्दोष घोषित करके प्रपंचका जाल बिछा रहे हों तो, उससे बचनेके लिये तथा उस जालसे दूसरोंको बचानेके लिये, उनकी जाँच करना आवश्यक है । यदि ऐसा न करेंगे, तो गुरुकी परीक्षाका मार्ग ही बन्द हो जायगा क्योंकि जब हम गुरुके समान निर्दोष होनेपर ही गुरुकी जाँच कर सकेंगे, तब हमें गुरुकी आवश्यकता ही न रहेगी। जब आवश्यकता है तब हम जाँच न करेंगे तो दुनियाँके सभी हमारे गुरु हो जायँगे । इसलिये सुगुरु-कुगुरुकी परीक्षा हमें करना चाहिये । चोखे पैसेकी अपेक्षा खोटे रुपयेकी कीमत भले ही ज्यादः हो परन्तु हम चोखा पैसा ले लेते हैं और खोटा रुपया नहीं लेते क्योंकि खोटा रुपया हमारे सामने रुपया बनकर आता है, पैसा बनकर नहीं आता । इसी प्रकार कुगुरुका हमें त्याग करना चाहिये क्योंकि वह गुरु बनकर हमारे सामने आता है। वह यदि हमारी
SR No.010098
Book TitleJain Dharm Mimansa 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1936
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy