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________________ दर्शनाचारके आठ अङ्ग ७ उपकारकताको बढ़ाना है। उपकारको भूल जाना कृतन्नता है; उपकारकताको बढ़ाना या रक्षित करना नहीं । जब उपकार ही नहीं तो उसका भूलना कैसा ? शास्त्रने अगर हमारा उपकार किया है तो उसके सच्चे अंशने उपकार किया है । परीक्षामें उसका असत्य अंश दूर किया जाता है । इसमें कृतघ्नता कैसी ? बीमार माताने यदि हमारी सेवा की ह तो हमें माताकी पूजा करना चाहिये, न कि उसकी बामारीकी । इसी तरह विकृत शास्त्रने यदि हमारी भलाई की है तो हमें शास्त्रकी पूजा करना चाहिये न कि उसके विकारकी। माताकी बीमारीके समान शास्त्रके विकारकी चिकित्सा करना, कृतन्नता नहीं, कृतज्ञता है । ___ परीक्षा, कृतघ्नताका परिणाम नहीं, प्रेम और भक्तिका परिणाम है । सुवर्णसे हम प्रेम करते हैं, इसलिये उसकी खूब परीक्षा करते हैं; उसमें कोई मैल न रह जाय इसलिये बार बार उसे अग्निमें डालते हैं । इसका अर्थ सुवर्णसे द्वेष नहीं है । इसी प्रकार शास्त्रकी परीक्षा भी उसके प्रेम और भक्तिकी सूचक है । इन सब कारणोंसे शास्त्रोंकी परीक्षा करना आवश्यक है । प्रश्न-यदि प्रत्येक सम्यग्दृष्टिको शास्त्रकी परीक्षा करना आवश्यक है तो सभी निसर्गज सम्यक्त्वी कहलायँगे । फिर सम्यक्त्वके निसर्गज और अधिगमज भेद क्यों किये गये ? ___ उत्तर-सम्यक्त्व चाहे निसर्गसे हो चाहे अधिगम (परोपदेश) से, परीक्षाकी (अमूददृष्टित्वकी) आवश्यकता दोनोमें है। परन्तु एक तो कल्याणके मार्गको स्वयं खोजता है और जाँच करता है जब कि दूसरा कल्याणके मार्गको दूसरेके उपदेशसे जानता है, और
SR No.010098
Book TitleJain Dharm Mimansa 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1936
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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