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________________ दर्शनाचारके आठ अङ्ग है या नहीं ? परन्तु ऐसे अवसर बहुत कम आते हैं, इसलिये यह परीक्षा हर एकको नहीं करना पड़ती । परन्तु शास्त्रकी जाय तो हम मार्गभ्रष्ट हो जायँ । मार्गीकी अपेक्षा इतनी अधिक है कि हम अगर इस विषय में पूरी खबरदारी न रखें तो हमारा मनुष्यजीवन व्यर्थ चला जाय । और किसी बातसे इतनी बड़ी हानि नहीं हो सकती । २९५ परीक्षा न की कुमार्गीकी संख्या किसकी कितनी परीक्षा करना इस विषय में तर-तमता हो सकती है, परन्तु परीक्षा सत्र जगह आवश्यक है । वालक भी मा-बाप की थोड़ी-बहुत परीक्षा करता ही है, अन्यथा वह हर एक स्त्रीपुरुषको मा-बाप समझने लगे । प्रेम, आकृति, संसर्ग आदि चिन्होंसे आवश्यक परीक्षा हो जाती है । आवश्यकता पड़ने पर अधिक परीक्षा भी की जाती है । बालक तथा अज्ञानी पुरुष अनेक बातों में परीक्षा नहीं कर पाते; इसका यह मतलब नहीं है कि परीक्षाकी उन्हें ज़रूरत नहीं है । किसी धनोपार्जनकी योग्यता न होनेसे उसे धन अनावश्यक नहीं हो जाता । बालक हिताहितकी परीक्षाकी योग्यता न रखनेसे अप्राप्तव्यवहार ( नाबालिग ) माने जाते हैं । नाबालिगों में उत्तरदायित्व नहीं होता इसलिये उन्हें अधिकार भी नहीं मिलता – वे सम्पत्तिके स्वामी भी नहीं माने जाते । इसी प्रकार जो अपरीक्षक हैं वे नाबालिग हैं, उनमें सम्यक्त्व नहीं होता, वे धर्मधनके वास्तविक स्वामी नहीं हो सकते हैं । बालक परीक्षाके विना काम करता है परन्तु वह हमारे लिये आदर्श नहीं है । इसी प्रकार मिथ्यात्वियोंकी ( अपरीक्षकोंकी ) अप
SR No.010098
Book TitleJain Dharm Mimansa 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1936
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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