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सम्यग्दर्शनके चिह्न
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एक बड़ासे बड़ा भय है। कर्तव्य पूरा करनेके लिये मृत्युका भय अवश्य जीत लेना चाहिये । अवसर आनेपर जो लोग जानपर खेल सकते हैं, वे ही अपना और जगत्का कल्याण कर सकते हैं । अगर अपना ऐहिक जीवन पवित्र है तो उसे कर्तव्यपर चढ़ा देनेसे वह और भी अधिक पवित्र जीवनका कारण हागा । अगर ऐहिक जीवन अपचित्र है तो कर्तव्यकी वेदीपर उसको बलि कर देनेसे अपवित्र जीवनका नाश ही होगा । और यह तो पूरा लाभ ही है।
संसारमें जो अत्याचार होते हैं, उनका प्रधान सहारा ( अवलम्बन) मृत्यु-भय ही है। अत्याचारी अगर अत्याचार करता है तो सहन करनेवालोंको उसे क्यों सहन करना चाहिये ? अगर पीड़ित लोग जानपर खेलकर अत्याचारके विरुद्ध खड़े हो जायँ तो अत्याचार नष्टप्राय हो जायँ । कोई आदमी यदि किसीपर अत्याचार करता है तो प्रायः उसके जीवनसे लाभ उठानेके लिये करता है; किन्तु जब पीड़ित मरनेके लिये तैयार होता है, परन्तु अत्याचार सहनेके लिये तैयार नहीं होता, तब अत्याचारीको अत्याचार करना अशक्य हो जाता है । इतना ही नहीं, किन्तु वह निरर्थक भी होता है । जैसे, कोई दुष्ट शासक अगर प्रजाके ऊपर अत्याचार करता है
और यदि प्रजा उसके विरोधमें मरनेतकके लिये तैयार हो जाती है तो वह शासक सामना नहीं कर सकता । अगर सामना करे भी, और प्रजा मर भी जाय ( ऐसी घटना इतिहासमें अभी तक नहीं हुई ) तो वह शासन किसपर करेगा ? इसीलिये उसका अत्याचार निरर्थक ही हो जायगा । ' मर जाओ, पर अत्याचार मत सहो' इस प्रकारकी भावना जगत्कल्याणके लिये आवश्यक है। बिना मृत्यु-भयके जीते ऐसी भावना हो नहीं सकती।