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जैनधर्म-मीमांसा
नोको उसे पूरा पालना चाहिये । परन्तु स्वार्थ के कारण मनुष्य उन नियमोंका भंग करता है । वह सोचता है कि अगर मैं जीवनभर दुःखी रहा तो दूसरोंके कल्याणसे पैदा होनेवाला सुख मुझे कब मिलेगा ? उसके इस भ्रमको मिटानेके लिये आत्माकी नित्यताका निश्चय बहुत उपयोगी होता है । वह मानता है कि वर्तमान जीवनसरखे असंख्य जीवन आत्माके अनन्त जीवनके सामने कोई गिनती में नहीं हैं इसलिये इस जीवनका बलिदान करके भी प्रथम अध्यायमें वर्णित सुखके उपायोंका पालन किया जाय तो हम टोटेमें न रहेंगे ।
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भविष्य-जीवनकी आशा हमें इस बातका सन्तोष देती है कि इस जन्मके कार्योंका फल हमें अगले जन्म में मिल सकेगा, इसलिये हमें अपना कर्तव्य करना चाहिये । कर्तव्य निष्फल न जायगा । अगर इस जन्ममें उसका फल न मिला तो आगेके जन्म में मिलेगा । भविष्यजीवनकी आशा मृत्युके भयको दूर कर देती है और जिसने मृत्युके भयको जीत लिया वह कर्तव्यमार्गमें पीछे नहीं हटता ।
आत्माकी नित्यतासे हम परको स्वकीय समझने लगते हैं इसलिये हमारी राग-द्वेषकी वासनाएँ कम हो जाती हैं । हम जगत् के कल्याण में वृद्धि करने लगते हैं और हानि करना छोड़ देते हैं । विश्व-प्रेमकी भावना खूब बढ़ती है। उस समय हमारे विचार इस प्रकार के होने लगते हैं
आज मैं भारतीय हूँ, मरनेके बाद यूरोपीय हो सकता हूँ, फिर यूरोपीयोंसे द्वेष क्यों करूँ ? अथवा आज मैं अँग्रेज़ हूँ, मरनेके बाद भारतीय हो सकता हूँ, फिर भारतको गुलामीमें जकड़कर क्यों