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सम्यग्दर्शनका स्वरूप
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प्रश्न - यदि ज्ञान पहिले होता है और हेयोपादेय - विवेक पीछे होता है तो यह क्यों कहा जाता है कि सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान एक साथ ही पैदा होते हैं ।
उत्तर- -ज्ञान तो पहिले ही होता हैं परन्तु सम्यग्ज्ञान पहिले नहा होता । हेयोपादेयका विवेक हो जानेपर ही ज्ञान सम्यग्ज्ञान कहलाता है । जिस समय सम्यग्दर्शन या हेयोपादेयका विवेक हुआ उसी समय ज्ञान, सम्यग्ज्ञान हुआ इसलिये सम्यग्दर्शन और सम्यज्ञान साथ ही कहलाये ।
श्रद्धा शब्दसे भी सम्यग्दर्शनका परिचय दिया जाता है । जो जो बुराइयाँ दुःखकी कारण हैं और उन बुराइयोंका कारण जो द्रव्य है उससे अपनेको अलग अनुभव करना, अपने शुद्ध रूपकी उपादेयता और पररूप या अपने अशुद्ध रूपकी हेयतापर पक्का विश्वास करना सम्यग्दर्शन कहा जाता है ।
बहुत से लोग ऐसे हैं जिन्हें पदार्थज्ञान तो बहुत होता है परन्तु भीतर से उसपर पक्की श्रद्धा नहीं होती - बनावटी होती है । फल यह होता है कि उस सत्यज्ञानका भी उस आत्मापर असर नहीं होता. या होता है तो बुरा असर होता है ।
होता है ।
जैसे किसीको जन्मसे यही सिखाया गया है कि प्रत्येक प्राणीके अच्छे-बुरे कामोंको परमात्मा देखता है और किये हुए पापका फल जरूर भोगना पड़ता है । इस बातका उसे पक्का ज्ञान दूसरी तरफ उसे यह भी सिखाया जाता है कि विष खानेसे आदमी मर जाता है, अग्निसे शरीर जलता है । इन दोनों प्रकारकी बातोंका उसे पूर्ण विश्वास है । बल्कि दूसरी प्रकारकी बातोंकी अपेक्षा उसे
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