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________________ १८८ जैनधर्म-मीमांसा रहनसे इनके विरोधी भाव कुछ और बढ़े, तीसरे उत्तर-प्रान्तवालोंने जिनकल्पके विच्छेदकी घोषणा करके स्थविर-कल्पको ही आदर्शरूप देकर अपने विचारोंमें कट्टरता प्राप्त कर ली थी। अब ये दिगम्बरवेषियोंको पहलेके समान अधिक तपस्वी भी माननेको तैयार न थे। __ इन सब कारणोंने मिलकर दोनों संघोंको पूर्ण विभक्त कर दिया। फिर भी यह भेद इतना अधिक न हुआ कि ये दो सम्प्रदाय हो जाते। विक्रमकी दूसरी शताब्दीमें ये दोनों संघ दो सम्प्रदायके रूपमें प्रकट हुए। श्वेताम्बरोंके कथनानुसार इस समय दिगम्बर सम्प्रदाय उत्पन्न हुआ, और दिगम्बरोंके कथनानुसार इस समय श्वेताम्बर सम्प्रदाय पैदा हुआ । मेरे विचारसे उस समय ये दोनों सम्प्रदाय उत्पन्न हुए. क्योंकि ये दोनों ही एक वृक्षकी दो शाखाएँ हैं। जिन बातोंमें इनमें मतभेद है उनमें अनेकान्त-दृष्टिको दूर कर दिया गया है और एकान्तको अपनाया गया है। __ दोनों सम्प्रदाय इस बातको स्वीकार करते हैं कि उस समय प्राचीन श्रुत लुप्त हो गया था-थोड़े थोड़े भग्न अंश बच रहे थे। मेरे ख़यालसे यह. द्रव्यश्रुतका लोप था। भावश्रुत तो द्रव्यश्रुतकी अपेक्षा अधिक बचा था। हाँ, कई कारणोंसे द्रव्यश्रुतका रक्षण आवश्यक था। द्रव्यश्रुत जिस प्रकार लुप्त हो रहा था अगर उसी प्रकार लुप्त होता जाता तो इसका फल बहुत बुरा होता । इसलिये वीर संवत् ९८० में देवर्द्धिगणीकी अध्यक्षतामें बल्लभीपुरमें (गुजरातमें ) श्वेताम्बर संघकी एक बैठक हुई। उसमें जितना श्रुत उस समय उपलब्ध था उसका लिपिबद्ध संग्रह किया गया । श्वेताम्बरोंमें आज उसी श्रुतका प्रचार है। इसमें संदेह नहीं कि
SR No.010098
Book TitleJain Dharm Mimansa 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1936
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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