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________________ जैनधर्म-मीमांसा कि अरहन्त अवस्थामें उनके ये कार्य एकान्तमें होते थे जिसे सर्वसाधारण नहीं देख सकते थे। हाँ उनके शिष्य देखते होंगे । श्वेताम्बर सम्प्रदायका चौथा अतिशय श्वासोच्छासमें कमल जैसी सुगन्धका होना है । ऐसा अतिशय तो प्रत्येक काव्यके नायक-नायिकामें माना जाता है, फिर महावीर तो एक तर्थिंकर थे अगर जैन लेखकोंने अतिशयके नामपर ऐसा वर्णन किया तो वे क्षन्तव्य ही नहीं सर्वथा क्षन्तव्य हैं । श्वेताम्बरोंके दूसरे अतिशयमें रोगरहित शरीर भी एक अतिशय है । यह भी भक्तिकल्प्य है । जो आदमी तीर्थङ्कर होनेवाला है उसे जन्मभर कभी बीमार न होना चाहिये यह बात भक्तके सिवाय और कौन कह सकता है ? आश्चर्यकी बात यह है कि दिगम्बर सम्प्रदायमें यह अतिशय नहीं माना गया है, यद्यपि दिगम्बर लोग अरहन्तको बीमार नहीं मानते। श्वेताम्बर सम्प्रदाय के अनुसार इतना तो माना जाता है कि म० महावीर गोशालककी तेजोलेश्यासे कई महीने बीमार रहे थे। दिगम्बर सम्प्रदायने इस अतिशयको नहीं माना फिर भी वे इस अतिशयको मलरहित शरीर में अन्तर्गत किये विना नहीं रह सकते । श्वेताम्बरोंने इस अतिशयको माना परन्तु म० महावीरकी बीमारी इस अतिशयका स्पष्ट विरोध है । अन्य अतिशयोंके विषयमें जो कुछ मैंनें कहा है वही इस अतिशयके विषयमें कहा जा सकता है । १५४ जो अतिशय दोनों सम्प्रदायोंमें समान हैं, वे भी इसीलिये माने गये हैं कि अरहन्त देवोंके भी देव हैं इस लिये उनका शरीर देवोंके शरीर से कम पवित्र नहीं मानना चाहिये । भक्तिकी दृष्टिसे यह अनुचित नहीं कहा जा सकता परन्तु इसमें वास्तविक सत्य
SR No.010098
Book TitleJain Dharm Mimansa 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1936
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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