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________________ बारह वर्षका तप है कि म० महावीर किस स्वभावके और कैसे वीर थे, धर्मके उद्धारके लिये इस बारह वर्षके अवसरमें उन्होंने किस तरह क्या क्या सामग्री एकत्रित की, वे नरसे नारायण कैसे बनें । जो जन्मसे ही म० महावारको नारायण मान लेते हैं और देवताओंके रूपकोंसे उनके महत्त्वको बढ़ाते हैं वे भक्तिके द्वारा पुण्यका संचय कर सकते हैं परन्तु सम्यक्त्व प्राप्त नहीं कर सकते, बल्कि दूसरोंको भी सम्यक्त्वसे वंचित रखते हैं। ___ म० महावीरका जीवन इतना महान् है कि उसे अलंकृत करनेके लिये देवताओंकी जरा भी आवश्यकता नहीं है। नकली रत्नोंको डॉक लगाकर चमकाया जाता है, असली हीरे तो बिना डाँकके ही चमकते हैं और उनकी परीक्षा तो डॉक लगाकर हो ही नहीं सकती। दुनियाके बाजारमें अगर जैनधर्मको और महावीरके व्यक्तित्वको रखना हो तो आगे-पीछेके सब आवरण अलग कर देना चाहिये । तभी जैनधर्म एक वैज्ञानिक धर्म कहा जा सकता है और इस वैज्ञानिक युगमें उसका प्रचार हो सकता है। कैवल्य और धर्मप्रचार गणधर बारह वर्षतक घोर तपश्चरण और पूर्ण मनन करनेके बाद म० महावीर पूर्ण समभावी और मर्मज्ञ हो गये । अब संसारकी कोई वस्तु उन्हें दुःखी नहीं कर सकती थी। जिस अज्ञानताके कारण प्राणी दुःखी होता है वह अज्ञानता उनकी नष्ट हो गई थी। आत्माको स्वतंत्र और सुखी बनानेका जो सचा मार्ग है, वह उन्हें प्रत्यक्ष झलकने लगा था। वे कृत-कृत्य हो गये थे-उनका कोई स्वार्थ बाकी न रह
SR No.010098
Book TitleJain Dharm Mimansa 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1936
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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