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________________ महात्मा महावीर १०७ v . . यों तो म० महावीरने जबसे घर छोड़ा तभीसे उनमें वीतरागता थी, परन्तु वह सच्ची और स्थिर है कि नहीं इस बातकी परीक्षा तभी हो सकती थी जब कठोरसे कठोर परीक्षा होनेपर भी वह टिकी रहती। इस प्रकार वीतरागताकी जाँचके लिये तथा उसमें जो कुछ छोटीमोटी त्रुटि रह गई हो उसे दूर करनेके लिये भगवान्ने कठोरसे कठोर उपसर्गोको विजय किया, परिषहें सही, तपस्याएँ की । इन तपस्याओंसे उन्होंने यह भी जान लिया कि किन किन चिह्नोंसे किसी मनुष्यकी पूर्ण वीतरागताका पता लगाया जा सकता है। इसका फल यह हुआ कि बहुतसे मनुष्योंका, जो वास्तवमें पूर्ण वीतराग और केवली हो जाते थे, गौतम पता भी न लगा पाते थे, किन्तु म० महावीर तुरन्त जान जाते थे कि अमुक मनुष्य केवली हो गया है। ___ अनेक बार ऐसा हुआ है कि गौतम गणधरके शिष्य 'केवली' हो जाते थे, किन्तु गौतमको इस बातका पता भी न लगता था कि मेरे ये शिष्य केवली हो गये हैं, इसलिये वे अपने केवली शिष्योंको साधारण शिष्योंकी तरह आज्ञा देते थे और उस समय म० महावीर गौतमको यह कहकर रोक देते थे कि-"गौतम, केवलीका अपमान मत करो।" यह सुनकर गौतम पश्चात्ताप करते थे। इससे यह बात साफ़ मालूम होती है कि म० महावीरने बारह वर्षके तपोमय जीवनमें अपने जीवनके अनुभवसे इस बातका भी निर्णय किया था कि सच्ची और पूर्ण वीतरागता तथा पूर्ण तत्त्वज्ञान प्राप्त होनेपर मनुष्यका जीवन कैसा हो जाता है और उसके चेहरेपर कौनसे सूक्ष्म चिह्न आ जाते हैं। उपसर्गादि-विजयसे मनुष्यकी वीतरागता परी
SR No.010098
Book TitleJain Dharm Mimansa 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1936
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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