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संसारी जीव के भेद चरस्थिरभवोद्भूतविकल्पैः कल्पिताः पृथक्। भवन्त्यनेकभेदास्ते जीवाः संसारवर्तिनः।।१२।।
(जा, सर्ग 6) संसारी जीव त्रस और स्थावर रूप संसार से उत्पन्न हए भेदों से भिन्न-भिन्न अनेक प्रकार के हैं। आचार्य आगे कहते हैं
पृथिव्यादिविभेदेन स्थावराः पञ्चधा मताः। त्रसास्त्वनेकभेदास्ते नानायोनिसमाश्रिताः॥१३॥
(ज्ञा. सर्ग 6) संसारी जीवों में स्थावर जीव-पृथ्वी, अप (जल), तेज, वायु और वनस्पति भेद से पांच प्रकार के हैं और त्रस द्वीन्द्रियादिक के भेद से अनेक भेद रूप हैं तथा अनेक प्रकार की योनि के आश्रित हैं।।13।। आचार्य आगे कहते हैं
चतुर्धा गतिभेदेन भिद्यन्ते प्राणिनः परम्। मनुष्यामरतिर्यञ्चो नारकाश्च यथायथम्॥१४॥
(ज्ञा. सर्ग 6) संसारी जीव गति के भेद से मनुष्य, देव, त्रिर्यंच और नारक चार प्रकार के हैं।।14।। आचार्य आगे कहते हैं
भ्रमन्ति नियतं जन्मकान्तारे कल्मषाशयाः। दुरन्त कर्म सम्पात पञ्चवशवर्तिनः॥१५॥
(ज्ञा. सर्ग 6) ये पापाशयरूपी संसारी जीव दुरन्त कर्म के संताप के प्रपंच के वशवर्ती होकर संसार रूपी वन में निरन्तर भ्रमण करते हैं।11511 आचार्य आगे कहते हैं
किन्तु तिर्यग्गतावेव स्थावरा विकलेन्द्रियाः। असंज्ञिनश्च नान्यत्र प्रभवन्त्यङ्गिनः क्वचित्॥१६॥
(ज्ञा. सर्ग 6) किन्तु स्थावर, विकलेन्दिय (द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय) और असंज्ञी (मनरहित पंचेन्द्रिय) ये तिर्यंच गति में ही होते हैं, अन्यत्र नहीं होते।
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