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________________ की प्रतिमा बनवाकर उसे दाहिने हाथ में पहिन ली तथा सिंहोदर के पास जाते समय वे उस अँगूठी को आगे रखते। एक दिन यह भेद राजा सिंहोदर को किसी ने बता दिया। तब उन्होंने क्रोधित होकर राजा वज्रकर्ण को मारने का विचार बनाया। अतः उन्होंने राजा वज्रकर्ण को मिलने के बहाने बुलवाया। सिंहोदर की कुटिलता से अनभिज्ञ वज्रकर्ण जब राजा से मिलने के लिए जा रहे थे कि रास्ते में ही विद्युदंग नामक एक व्यक्ति ने राजा वज्रकर्ण को बताया कि राजा ने तुमको मारने के लिए बुलवाया है क्योंकि उसको तुम्हारी अंगूठी वाली बात किसी ने बता दी है। जब वज्रकर्ण को उस पर विश्वास नहीं हुआ तो उसने अपनी पूरी कहानी बताई। तब वज्रकर्ण ने उस पर विश्वास कर लिया। इतने में सिंहोदर सेना सहित राजा वज्रकर्ण की ओर आ गया। यह देखकर वज्रकर्ण और वह व्यक्ति दोनों वज्रकर्ण के महल में जाकर छिप गये। तब सिंहोंदर ने कहा वज्रकर्ण मैंने तुझे इतना (राज्य देकर राजा बनाया) अब तू मुझको नमस्कार नहीं करता? तब वज्रकर्ण कहता है कि सब कुछ ले जाओ लेकिन मैं (सच्चे देव गुरु और सच्चे शास्त्र के अलावा किसी को नमस्कार नहीं करूंगा। तब सिंहोदर ने क्रोधित होकर वज्रकर्ण पर आक्रमण कर दिया। किन्तु उसकी सेना वज्रकर्ण के अभेद्य किले में प्रवेश न कर सकी। इससे बौखलाए हुए सिंहोंदर ने बाहर का सब गाँव जला डाला। कुछ समय के पश्चात् वहाँ पर राम, छोटे भाई लक्ष्मण और सीता के साथ आए। जब राम को सिंहोंदर की करतूत का पता चला तो उन्होंने कहा, कि हम वज्रकर्ण जैसे धर्मात्मा को शीघ्र ही सिंहोंदर के चंगुल से छुड़ायेंगे। राम ने लक्ष्मण से कहा, जाओ, वज्रकर्ण की रक्षा करो। लक्ष्मण सीधे सिंहोंदर को बन्दी बनाकर राम के पास लाए। राम वे वज्रकर्ण से कहा कि इसको क्या दण्ड दें, वज्रकर्ण ने कहा कि मैं किसी को भी दुःख न दूं, दु:खी न देखें, अतः इन्हें छोड़ दो। सम्यग्दर्शन का द्वितीय सोपान : तत्वों का यथार्थ श्रद्धान आचार्य उमास्वामी ने तत्त्वार्थसूत्र के पहले अध्याय के दूसरे सूत्र में कहा है, 'तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्' अर्थात्- तत्त्व-वस्तु के भाव को, अर्थ-जानकर, श्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्-उसका यथार्थ श्रद्धान करना ही सम्यग्दर्शन है। जीवाजीवासवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्त्वम्।।4।। अर्थात्- जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये सात तत्त्व हैं। छहढाला में पंडित दौलराम कहते हैं जीव अजीव तत्त्व अरुआश्रव, बंधरु संवर जानो। निर्जर मोक्ष कहे जिन तिनको, ज्यौं का त्यौं सरधानों। - 57
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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