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________________ आचार्य समन्तभद्र कहते हैं-कि सम्यग्दृष्टि निम्न गतियाँ में नहीं जाता है सम्यग्दर्शनशुद्धा, नारकतिर्यङ्नपुंसकस्त्रीत्वानि। दुष्कुलविकृताल्पायुर्दरिद्रतां च व्रजन्ति नाप्यव्रतिकाः॥ (रलकरण्डश्रावकाचार) व्रत रहित भी शुद्ध सम्यग्दृष्टि जीव, नरक, तिर्यंच, नपुंसक, स्त्री, अकुलीनता, विकलाङ्गता, अल्पआयुष्कता और दरिद्रता को प्राप्त नहीं होते। सम्यग्दृष्टि के उत्पत्ति के स्थान बताते हुये आचार्य समन्तभद्र कहते हैं देवेन्द्रचक्रमहिमानममेयमानं, राजेन्द्रचक्रमवनीन्द्रशिरोऽर्चनीयम्। धर्मेन्द्रचक्रमधरीकृतसर्वलोकं, लब्ध्वा शिवं च जिनभक्तिरुपैतिभव्यः॥ (रत्नकरण्डश्रा.) सम्यग्दृष्टि जीव मरने पर योग्यतानुसार अपरिमित इन्द्र के ऐश्वर्य को 32 हजार मुकुट-बद्ध राजाओं के द्वारा पूज्य चक्रवर्ती के पद को त्रैलोक्य के पूज्य तीर्थंकर पद को और मोक्ष को भी पाता है। आचार्यों ने कहा है मुक्ति गये या जायेंगे माहात्म्य है सम्यक्त्व का। यह जानलो हे भव्य जन, इससे अधिक अब कहें क्या।। सम्यग्दर्शन का महत्त्व अधोलिखित दृष्टान्तों से समझा जा सकता है1. एक जंगल में से दो मुनि जा रहे थे। शरीर की दृष्टि से वे पिता-पुत्र थे। पत्र आगे-आगे चल रहा था, पिता पीछे थे। जंगल एकदम भयानक था। दोनों तत्त्वचर्चा करते जा रहे थे शरीर अलग है और चैतन्य आत्मा अलग है, शरीर के नाश से आत्मा का नाश नहीं होता। इतने ही में अचानक सिंह का गर्जन हुआ। पिता ने पुत्र से कहा, 'तुम पीछे आ जाओ, यहाँ खतरा है।' किन्तु पुत्र नहीं आया। पिता ने पुनः कहा, किन्तु पुत्र नहीं आया। सिंह सामने आ चुका था। मृत्यु सामने खड़ा था। पुत्र बोला, "मैं शरीर नहीं हूँ, मैं चैतन्य हँ. मेरा नाश हो ही नहीं सकता, मेरी मृत्यु कैसी?' पिता तो भाग गया, लेकिन पुत्र आगे बढ़ता गया; सिंह ने उस पर हमला कर दिया। वह गिर पड़ा था, पर उसे दिखाई पड़ रहा था कि जो गिरा है वह मैं नहीं हैं। वह शरीर नहीं था, इसलिए उसकी मृत्यु नहीं हुई। पिता मात्र कहता था, कि शरीर हमारा नहीं है, परन्तु दिखाई उसको यह दे रहा था कि शरीर हमारा है। वस्तुतः कहने और दिखने में मौलिक अन्तर है। सही दिखने से जीवन परिवर्तन होता है। कहने से नहीं। इसलिए सम्यग्दर्शन अर्थात् सही देखने को 'मोक्षमार्ग' कहा है। 48
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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