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गुरु आते हैं और कहते हैं कि भाई आयु का कुछ भरोसा नहीं कब मृत्यु आ जाये इसलिए जितना समय मिला है हमें आत्मकल्याण में लगाना चाहिए जिससे कुछ ही समय में तुम आत्मरूपी वैभव के धनी बन जाओगे। आचार्य योगीन्दुदेव योगसार ग्रन्थ में कहते हैं
जइ वीहउ चउगइगमणा तो परभाव चएहि । अप्पा झायहि णिम्मलउ जिम सिव सुक्ख लहेहि ॥५॥ जो चउगति दुःख से डरे, तो तज सब परभाव। कर शुद्धातम चिंतवन, शिवसुख यही उपाय ॥ ५ ॥
आचार्य पूज्यपाद स्वामी भी समाधिशतक में कहते हैं
यो न वेत्ति परं देहादेव मात्मानमव्ययम् । लभते न स निर्वाणं तप्त्वापि परमं तपः ॥ ३३० ॥
(जो कोई शरीरादि से भिन्न इस प्रकार के ज्ञाता, दृष्टा, अविनाशी, आत्मा को नहीं जानता है वह उत्कृष्ट तप तपते हुए भी निर्वाण प्राप्त नहीं करता अर्थात् पहले मनुष्य जीवन की सार्थकता जानकर सम्यक्त्व को प्राप्त कर, सम्यक्तप कर पतित से पावन बन। पावन बनने के लिए त्याग और समर्पण अनिवार्य है) यह बात निम्न दृष्टान्त द्वारा समझी जा सकती है
कौड़ी की कीमत
एक बार की बात है कि दक्षिण भारत के एक गाँव तिरुबल्लूर में गाँधी जी एक सभा को सम्बोधित कर रहे थे। भाषण के बाद हरिजन कल्याण के लिए दान देने की अपील करते हैं। गाँधी जी के इतना कहते ही दान की झड़ी लग जाती है। रुपया-पैसा के साथ-साथ सोने-चाँदी का दान भी लोग देने लगते हैं। कोई अपनी अँगूठी तो कोई अपने गले का हार। इसी बीच एक सज्जन व्यक्ति ने अपनी बहुमूल्य अँगूठी आगे बढ़कर गाँधी जी के हाथों में थमा दी। तत्काल एक हरिजन माँ ने जो वस्त्र के नाम पर फटे-पुराने चिथड़े पहने थी, आगे बढ़ी और बड़े जतन से अपने पल्ले में बाँध रखी 'एक कानी कौड़ी' गाँधी जी को अर्पण कर दी। यह देख गाँधी जी गद्गद हो, धीर-गम्भीर स्वर में उपस्थित जनता से कहने लगे कि यह एक कौड़ी नहीं है, यह आज की सभा का सबसे बड़ा दान है। 'यह सर्वस्व का समर्पण है।' यह कौड़ी नहीं, अपितु माँ के हाथ की एक पवित्र वस्तु है । कोई भाई यदि चाहे तो इसे ले सकते हैं। बोलिए कितने में लेगें। बोली लगने लगती है। बोली बढ़ने लगती है, किन्तु एक वृद्ध आरम्भ से लेकर अन्त तक बोली अपने नाम छुड़ाने के आशय से बोली को बढ़ाता जाता है। आखिर उसके नाम पर 'एक कोड़ी' की बोली सोलह हजार में छूट जाती है। गाँधी जी जब सोलह हजार के बदले उस श्रमिक
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