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________________ समझकर जीवन में उतारना होगा। जीवन की परिचर्या को बदल देना होगा। वैरागी बनकर जीवन व्यतीत करना होगा। तभी एक दिन मुक्ति रूपी लक्ष्मी को प्राप्त किया जा सकता है। अपनी दृष्टि को बदल कर स्वान्मुखी, अर्न्तमुखी होकर कार्य करने से लक्ष्य को प्राप्त करने में देरी नहीं लगती। राग की परिभाषा - माया, लोभ, तीनवेद (पुरुष वेद, स्त्री वेद, नपुंसक वेद), हास्य और रति । इनका नाम राग है। यह प्रीति रूप राग जीव का नहीं है। जहाँ राग होगा वहाँ द्वेष भी अवश्य होगा। आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि निर्विकारशुद्धात्मनो विपरीतमिष्टानिष्टेन्द्रियविषयेषु हर्षविषादरूपंचारित्रमोहसंज्ञं रागद्वेषं ॥८३॥ - प्रवचनसार तात्पर्यवृत्ति निर्विकार शुद्धात्मा से विपरीत इष्ट-अनिष्ट विषयों में हर्ष-विषाद रूप चारित्रमोह नाम का राग-द्वेष होता है। राग-द्वेष शब्द से क्रोधादि कषाय के उत्पादक चारित्रमोह को जानना चाहिए। दूसरे शब्दों में चारित्र मोहनीय कर्म के उदय से जो इसके रस विपाक का कारण, इष्ट-अनिष्ट पदार्थों में जो प्रीति-अप्रीति रूप परिणाम होता है, उसका नाम राग-द्वेष है। यह मोक्षमार्ग में बहुत बाधक है। राग-द्वेष के निम्न भेद हैं राग के भेद - 1. माया, 2. लोभ, 3. पुरुषवेद, 4. स्त्रीवेद, 5. नपुंसकवेद, 6. हास्य और 7. रति । इन सात भेद रूप राग होता है। द्वेष के भेद - 1. क्रोध, 2. मान, 3. अरति 4. शोक, 5. भय और 6. जुगुप्सा । इन छळ भेद रूप द्वेष होता है। इस प्रकार कुल मिलाकर 13 भेद रूप राग-द्वेष होता है। जब तक जीव की दृष्टि बहिरंग पर रहती है तब तक वह इस राग-द्वेष के वशीभूत संसार में भ्रमण करता रहता है। आकुल व्याकुल होता रहता है। किन्तु जब यह अपनी ओर दृष्टिपात करता है तब आकुलता-व्याकुलता घटने लगती है । कुछ शान्ति का अनुभव करने लगता है। भगवान को किसी प्रकार की आकुलता नहीं, वे केवल अपने आप को देखते हैं। इसलिए दुनिया से उन्हें कोई सरोकार नहीं। आत्मा का स्वभाव सम्यग्दर्शन - ज्ञान- चारित्रमय है। परम् शान्ति चाहने वाले को इन्हीं का सेवन करना चाहिए। आत्मा के ये तीन तत्त्व व्यवहार भेद रूप हैं। निश्चय से आत्मा तीन भेद रूप नहीं वह एक रूप ही है। ज्ञान, दर्शन जिसका स्वभाव है। यही भेद विज्ञान है। राग और वैराग्य में यही अन्तर है। एक प्रसिद्ध कवि ने इस सवैये में कहा हैं कि राग उदै भोग भाव लागत सुहावने से, बिना राग ऐसे लागें जैसे नाग कोर हैं। 427
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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