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________________ को भोगता हुआ संसार भ्रमण करता है तथा कुभोगभूमियों में और मानुषोत्तर पर्वत से बाहर तथा स्वयंप्रभ पर्वत से पहले जो तिर्यच पाये जाते हैं, तथा जो म्लेच्छ राजाओं के हाथी, घोड़े, वैश्या वगैरह नीच प्राणी भोग भोगते हुए पाये जाते हैं, वे सब कुपात्र दान के परिणामों के अनुसार उत्पन्न हुए मिथ्यात्व सहचारी पुण्य के उदय से होते हैं। __सोमदेव सूरि कहते हैं कि मिथ्यादृष्टि साधुओं का भक्तिपूर्वक, सत्कार करने से सम्यग्दृष्टि गृहस्थों का श्रद्धान भी दूषित हो जाता है, अतः सम्यग्दृष्टि कुपात्रों को दान नहीं देता है। सम्यक्त्व और व्रत से रहित अपात्र को दान देना व्यर्थ है। अपात्र दान से पाप के सिवाय दूसरा फल नहीं प्राप्त होता। अपात्र को पात्र बुद्धि से दान नहीं देना चाहिए, दयाभाव से देने में कोई हानि नहीं है। इस तरह दान का फल दान देने वाले और दान लेने वाले दोनों को मिलता है। जो दान ग्रहण करता है, वह अपने धर्म साधन में लगकर अपने आत्मिक गुणों की उन्नति करता है और जो दान देता है वह पुण्यकर्म का बन्ध करता है। यदि दान सात्त्विक होता है तो विशेष पुण्य का बन्ध होने से दाता भोगभमि से स्वर्ग में जाकर और वहाँ चक्रवर्ती आदि पद प्राप्त करके मोक्ष जाता है। इस संसार में प्रत्येक वस्तु चाहे वह चेतन हो या अचेतन एक-दूसरे को कुछ न कुछ अपनी शक्ति के अनुसार दे रहे हैं। देने का नाम ही दान है। यह स्वतः दान की क्रिया अनादिकाल से चली आ रही है। इसके अतिरिक्त जो किसी को उसकी आवश्यकता के अनुसार अपने अधिकार की वस्तु को दिया जाता वह धन आदि का दान कहलाता है। सुपात्र को दान देने से, भोग भूमियों में जन्म होता है और अपात्र को दान देने से पाप का बन्ध होता है। यदि उन्हें पात्र की दृष्टि से दान दिया जावे तब। यदि दया की दृष्टि से दान दिया जावे तब पुण्य का बन्ध होता है। दान में परिणामों की जो स्थिति होती है वैसी प्रकृति का ही बन्ध होता है। दानी पुरुषों को अपना स्वभाव चन्दन की भाँति शीतल रखना चाहिए। कोई कुछ भी कहे दान अवश्य देना चाहिए। धर्म के लिए दान देने से धन कभी नहीं घटता, जब कभी घटता है तो पाप के उदय से ही घटता है। जिस प्रकार कुएँ का जल पीने से कभी नहीं घटता एवं विद्या कभी देने से नहीं घटती उसी प्रकार धन की दशा है, अर्थात् देने से बढ़ता है घटता नहीं है। ज्यों-ज्यों धन का दान किया जाता है, पुण्य की प्राप्ति होती है। जो लोग दान देने से धन का घटना समझते हैं वे भूल करते हैं। इस कारण हे भव्य जीवों! मनुष्य जीवन को सफल बनाने के लिए दान अवश्य करना चाहिए। जैसे खेती का मुख्य फल धान्य होता है, वैसे ही पात्र दान का मुख्य फल मोक्ष होता है और जैसे खेती का गौण फल भूसा होता है उसी प्रकार पात्रदान का गौण फल भोग सामग्री होती है। इस प्रकार सद्गृहस्थ को अपने घर-व्यापार से उत्पन्न हुए सभी पापों को दूर करने के लिए प्रतिदिन दान को अवश्य करना चाहिए। यह षट आवश्यक का अन्तिम कर्तव्य है। कहा है कि पानी बाड़े नाव में, घर में बाड़े दाम। दोनों हाथ उलीचिये, यही सयानो काम।। - 425 425 -
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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