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________________ किं न तप्तं तपस्तेन किं न दत्तं महात्मना। वितीर्णमभयं येन प्रीतिमालम्ब्य देहिनाम्॥ -ज्ञानार्णव, 54 जिस महापुरुष ने जीवों को प्रीति का आश्रय देकर अभयदान दिया हो, उस महात्मा ने कौन सा तप नहीं किया और कौन सा दान नहीं किया? अर्थात उस महापुरुष ने समस्त तप, किया और दान दिया। क्योंकि अभयदान में सभी तप, दान आ जाते हैं। किसी ने कहा है दान बिना नहिं मिलत है सुख सम्पत्ति सौभाग्य। कर्मकलंक खपाय कर पावे शिवपद राज॥ अर्थात्-दान से ही संसारी जीवों को महान् सुख की प्राप्ति होती है। दानी जीव ही संसार में महान यश को प्राप्त करता है। कहाँ तक कहा जावे इस संसार में दान के प्रभाव से ही जीव अत्यन्त दुर्लभ भोग भूमि के सुख, देव-विद्याधर-प्रतिनारायण तथा नारायण-चक्रवर्ती और वसुदेव आदि पदों को प्राप्त करता है। इस दान के प्रभाव से शत्रु भी शत्रुता छोड़कर अपना हित करने लगते हैं। वान का फल पूज्य गुरु निर्गथ बिन दानी कौन बनाय। भोग भूमीश्वर चक्री जिन होकर मोक्ष लहाय॥ यदि पूज्य निग्रंथ साधु गुरु न होते तो जीवों को श्रावक बनकर दानी बनने का सौभाग्य कैसे प्राप्त होता? और दान के बिना उसका फल भोग भूमि का सुख, देव पर्याय के आनन्द, चक्रवर्तियों की विभूति, एवं तीर्थर पदवी और मोक्ष पद कैसे प्राप्त होता? इसलिए पूज्य दिगम्बर निग्रंथ साधुओं को आहार दान देने का बड़ा महत्त्व है। सुपात्र को दिया गया दान अच्छे स्थान में बोये हुए बीज के समान सफल होता है। दान देने वाला मिथ्यादृष्टि यदि जघन्य सुपात्र को दान देता है। तो वह मरकर जघन्य भोगभूमि में जन्म पाता है। यदि सम्यक्त्व और अणुव्रत सहित मध्यम सुपात्र को दान देता है तो मध्यम भोगभूमि में जन्म पाता है और वहाँ निर्बाध भोगों को भोगकर अपनी आयु क्षय होने पर यथायोग्य देव होता है। इसका कारण यह है कि जैसे पात्र को वह दान देता है उसी प्रकार के शुभ परिणाम होने से उसी जाति के पुण्य का बन्ध करता है यदि सम्यग्दर्शन और महाव्रत से भूषित उत्तम सुपात्र को दान देता है तो उत्तम भोगभूमि में जन्म पाता है। ___ दान देने वाला मिथ्यादृष्टि यदि कुपात्र को दान देता है, वे दातार कुभोगभूमि में भूषण-वस्त्र रहित, गुफा या वृक्ष के मूल में निवास करने वाला कुमनुष्य होकर अपने ही समान पत्नी के साथ यथायोग्य बाधा रहित भोगों को भोगकर एक पल्य प्रमाण आयु के क्षय होने पर मरकर वाहन जाति का देव, या ज्योतिष्क, या व्यन्तर, या भवनवासी देव होकर दीर्घ काल तक दुर्गति के दुःखों 424
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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