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________________ मित्रों के साथ, वैद्यों के साथ और कभी ज्योतिषियों के साथ नाना प्रकार के कार्यों को करते थे। पवित्र जिनमन्दिर में जाकर प्रतिदिन जिनेन्द्र पूजन आदि करता और इस प्रकार अपने गृहस्थ के षट् आवश्यकों का वे यथायोग्य पालन करते थे। एक दिन शिवकुमार चारणऋद्धि मुनिराज के पास जाते हैं तो इनको अपना पूर्व भव स्मरण हो आता है। इस जातिस्मरण से इनको वैराग्य उत्पन्न हो जाता है। घर आने पर पिता से कुछ नहीं कहते, उदास रहने लगते हैं। एक दिन अपने मित्र से कहते हैं कि मैं आदि अनन्त अपरिमित अतीन्द्रिय सुख की दात्री जैनेश्वरी दीक्षा लेना चाहता हूँ, और माता-पिता मुझे वीतरागी पथ पर जाने से रोकेंगे, मेरे ऊपर प्रतिबंध लगाएंगे, परन्तु अब मैं एक क्षण भी उसमें फंसना नहीं चाहता हूँ। इनका मित्र यह सब स्थिति समझ जाता है तथा राजा से सब वृतान्त कह सुनाता है। राजा महापद्म पुत्र को बुलाते हैं तथा समझाते हैं कि जैसे तुम प्राणियों पर दया कर रहे हो, ऐसे ही मुझ पर भी दया करो। तुम तप अंगीकार करके अपने घर में ही एकान्त स्थान में रहकर शक्ति अनुसार तप करो, जिससे तुम्हारी साधना भी होती रहे और हम तुम्हें देखते भी रहें, जब तुम्हारे मन में राग-द्वेष नहीं तब वन या घर सभी समान हैं। पिता के मर्मान्तक वचन सुनकर शिवकुमार दुविधा में पड़कर विचारने लगे-कि यह कैसी विडम्बना! अति महादुर्लभ वैराग्य पाकर भी आत्माभ्यास के बिना एवं कषायोदय की तीव्रता के वश मेरा मन पिता के वचनों में अटक रहा है। भले ही कुछ समय के लिए मेरा राग तीव्र हो ले, परन्तु मैं अन्ततः तो सकल संयम धारण कर आत्महित करूँगा। इस प्रकार शिवकुमार पिता की आज्ञानुसार घर में रहकर आत्माभ्यास करने पर सहमत हो जाते हैं। ___अब शिवकुमार मुनिराज से श्रावक के अणुव्रत स्वीकार कर लेते हैं, और संसार, देह भोगों और सर्वजनों से विरक्त हो, महल के ही उद्यान में एकान्तवास करने लगते हैं। अपने ब्रह्मस्वरूप में लीन रहने लगते हैं। वैरागी शिवकुमार रानियों आदि को भूल जाते हैं और 'जल से भिन्न कमल' की भाँति घर में रहते हैं। सचमुच सम्यग्ज्ञान की अद्भुत महिमा है। अनाहारी पद की साधना में रत ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले शिवकुमार कभी एक उपवास, कभी दो उपवास, कभी एक पक्ष के उपवास तो कभी एक माह के उपवास के बाद शुद्ध प्रासुक आहार लेते हैं और उग्रतप करते हुए काम, क्रोधादि विकारी भावों को नष्ट कर 64000 वर्ष तक घर में तप किया और आयु के अन्तिम समय में अतीन्द्रिय आनन्दमयी परम दिगम्बर जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण करते हुए, मुनिपद को शोभायमान किया। एक दिन जितेन्द्रिय मुनिराज चारों प्रकार के आहारों का त्यागकर आत्माधीन हो नश्वर काया को त्यागकर देव पद को प्राप्त कर लेते है और नियम से मोक्षपद को प्राप्त करने के अधिकारी होंगे। - इस प्रकार हम देखते हैं कि जो सद्गृहस्थ घर में रहकर भी तप करता है, षट् आवश्यकों का पालन करता है वह एक दिन मुनिपद प्राप्तकर इस संसार सागर से छूट जाता है। 'तपसा निर्जरा च।' तप निर्जरा और संवर का कारण है- ऐसा आचार्य उमास्वामी ने कहा है। - 412
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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