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________________ तप का महत्त्व बताते हुए पं. द्यानतराय जी दशलक्षण पूजा में लिखते हैं कि तप चाहें सुरराय, करम शिखर को वज्र है। द्वादश विध सुखदाय, क्यों न करें निज सकति सम।। उत्तम तप सब माहिं बखाना, करम-शैल को वज्र समाना ॥ जिस तप को देवराज इन्द्र भी चाहते हैं, जो तप कर्मरूपी पर्वतों को भेदने वाला है, वह बारह प्रकार का तप वास्तविक सुख प्रदान करने वाला है; उसे हम शक्ति के अनुसार क्यों न करें? अर्थात् इस मनुष्य भव में हमें यह बारह प्रकार का तप अवश्य तपना चाहिए, क्योंकि यही संसार को छेदने वाला है। यहाँ यह बात समझने की है कि तप में राग को घटाया जाता है। तपस्वी का मोह पहले ही नष्ट हो चुका होता है। वह सम्यक्त्व प्राप्त किये हुए होता है, तत्पश्चात् तप को करता है तभी वह सम्यक् तप कहलाता है जो उसे मोक्ष प्रदान करता है। यदि वह सम्यक्त्व के बिना करोड़ों वर्षों तक भी तप करे तब भी वह मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता। यही भाव पं. दौलतराम भी व्यक्त करते हैं कोटि जन्म तप तपैं, ज्ञान बिन कर्म झरें जे। ज्ञानी के छिन माँहि त्रिगुप्ति तैं सहज टरै ते॥४॥ 2 सम्यग्ज्ञान के बिना अज्ञानी जीव बाल तप के द्वारा करोड़ों जन्मों में तप करके जितने कर्मों को दूर करता है, उतने कर्मों को ज्ञानी जीव अपने मन-वचन और काय इन तीनों को वश में करके तप द्वारा क्षण भर में ही नष्ट कर देता है। इस प्रकार तप की जीवन में बहुत महिमा है। तप साक्षात् मुक्ति का कारण है। यह बात इस दृष्टान्त से भी स्पष्ट हो जाती है। शिवकुमार का वैराग्य पूर्वविदेह के पुष्कलावती देश में एक वीतशोकापुरी नाम का एक नगर है। यहाँ का चक्रवर्ती राजा महापद्म महा बलवान था । उसकी एक वनमाला नाम की रानी थी। कुछ समय बाद इनसे एक पुत्र उत्पन्न होता है, जिसका नाम शिवकुमार रखा जाता है। यह बालक "यथा नाम तथा गुण" सम्पन्न था। जब बालक आठ वर्ष का हुआ तब वह बालक व्याकरण, साहित्यादि शास्त्रों को अर्थ सहित पढ़ने लग जाता है। आगे चल यही बालक शस्त्रविद्या, संगीत, नाटक आदि अनेक विद्याओं में कुशलता प्राप्त कर लेता है। कुमार अवस्था को पार कर यौवन अवस्था देख पिता महापद्म इनका विवाह अति सुन्दर एवं योग्य पाँच सौ कन्याओं के साथ बहुत ही हर्षोल्लास के साथ कर देता है। शिवकुमार सभी विद्याओं में निपुण होने के कारण राजकुमार यौद्धाओं के साथ 411
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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