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________________ वहाँ की दुर्गन्ध इतनी है कि अगर पहले नरक का एक कण भी मध्यलोक में पहुँच जाये तो एक मील तक का मानव समाप्त हो जायेगा। अगर सातवें नरक की जरा सी कण मध्यलोक में आ जाये तो साढ़े 24 मील तक का प्राणी समाप्त हो जायेगा, ऐसी दुर्गन्ध हमने बार-बार सही और फिर सेमर तरु दल जुत असिपत्र, असि ज्यौं देह विदारै तत्र। मेरु-समान लोह गलि जाय, ऐसी शीत उष्णता थाय॥ वहाँ सेमर नाम के वृक्षों के नीचे शीतलता के लिए गया, वहाँ उसके पत्तों ने झड़-झड़कर तलवार की तरह हमारे शरीर को काटा। अरे! वहाँ की ठंड एवं गर्मी ऐसी थी कि सुमेरू पर्वत जैसा लोहे का गोला भी पानी की तरह पिघल जाय। तिल-तिल करैं देह के खण्ड, असुर भिडावै दुष्ट प्रचण्ड। सिंधु-नीर तैं प्यास न जाय, तो पण एक न बूंद लहाय॥ तीन लोक को नाज जु खाय, मिटें न भूख कणा न लहाय। ये दुःख बहु सागर लौं सहे, करम-जोग तै नरगति लहैं। इस प्रकार नरकों में दुःख भोगे इसके बाद पुण्य के योग से मनुष्य गति में आया, कैसे हैं मनुष्य गति के दुःख जननी उदर वस्यौ नव मास, अंग-सकुचरौं पाई त्रास। निकसत जे दुःख पाये घोर, तिनको कहत न आवे ओर॥ बाल पने में ज्ञान न लह्यो, तरुण समय तरुणी रत रह्यो। अर्द्धमृतक समबूढा पनौ, कैसे रूप लखै आपनो॥ इस प्रकार हमने ये मनुष्य गति के दुःख सहे और फिर कभी अकाम-निर्जरा करै, भवनत्रिक में सुरतन धरै। विषय चाह-दावानल दह्यौ, मरत विलाप करत दुःख सह्यौ। जो विमान वासी हूँ थाय, सम्यग्दर्शन बिन दुःख पाय। तहँ तै चय थावर-तन धरै, यो परिवर्तन पूरे करै॥ इस प्रकार इस जीव ने परिवर्तन पूर्ण करे एक बार नहीं अनेक बार लेकिन अपने कल्याण के बारे में नहीं सोचा। एक दृष्टान्त है 20
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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