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मूंड-मुंडाये तीन गुण, सिर की मिट जाये खाजा
खाने को हलुआ-मेवा मिले, लोग कहे महाराज। त्याग वही कर सकता है जिसका राग छूट गया हो। राग छूटे बिना त्याग नहीं हो सकता और त्याग करे बिना संयम धारण नहीं हो सकता। जीवन में संयम का बहुत महत्त्व होता है। संयम के बिना जीवन सुचारू रूप से चल ही नहीं सकता।
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि गृहस्थ को संसार में भटकाने के दो कारण हैं, एक तो पंचेन्द्रियों के और मन के विषय और एक छळ काय के जीवों का घात। इनको नियन्त्रित करना ही क्रमश: इन्द्रिय संयम और प्राणी संयम कहलाता है। इन दोनों संयम को धारण करने के लिए श्रावक की ग्यारह प्रतिमा हैं, जिन्हें श्रावक अपनी शक्ति अनुसार पालता हुआ अपने लक्ष्य की
ओर बढ़ता है। संयमी गृहस्थ का जीवन सफल हो जाता है, इसके विपरीत इन्द्रियों के विषयों से अनुरक्त पुरुष के लिए विद्या, दया, द्युति, अनुद्धतता, सत्य, तप, नियम, विनय, विवेक सब व्यर्थ हो जाते हैं। बुद्धिमान पुरुष इन विषयों में आसक्त नहीं होते। जो इस संसार में अत्यन्त दुर्जेय इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर लेता है उसको संसार में कोई वस्तु एवं संपत्ति दुर्लभ नहीं होती। उसका जीवन प्रशंसनीय और बड़े-बड़े लोगों से पूजनीय हो जाता है। अतः सद्गृहस्थ को अपना जीवन सार्थक करने के लिए षट आवश्यक का चौथा आवश्यक संयम को प्रतिदिन अपने जीवन में धारण करना अनिवार्य है।
संयम लिया है हमने, हर हद तक निभाएंगे। कमों को अब तो हँस-हँसकर भगाएँगे।। जियेंगे संयम की खातिर, समाधि लेंगे आत्महित में। सबक संयम का, सारी दुनिया को हम सिखाएँगे।
पाँचवाँ आवश्यक : तप आज का विषय है-'पाँचवाँ आवश्यक 'तप'। किसी ने कहा है
तप करते यौवन गयो, दरब गयो मुनिदान।
प्राण गये सन्यास में, तीनों गये न जान।। इच्छा का दमन करना "तप" माना गया है। गृहस्थों की इच्छाएं असीम होती हैं। एक सद्गृहस्थ को अपनी इच्छाओं का दमन करने का पर्याप्त अवसर मिलता है। क्योंकि मानव को संसार के पंक में, कमल की भाँति विकसित होने के लिए तप करना अनिवार्य है।
जैसे-कमल कीचड़ से पोषक तत्त्वों को ग्रहण करके विकसित होता है, खिलता है, उसी प्रकार मानव का संसार में रहकर उससे वैराग्य के पोषक तत्त्वों को ग्रहण कर जीवन को विकसित करता हैं।
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