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चल देती है। सेठ जी अपने घर चलने से पहले, उसे एक चादर अपने साथ ले चलने के लिए कहते हैं। अब सेठ जी अपने घर जाकर उस चादर को अशर्फियों से भर देते हैं और वह लाल अपने पास रख लेते हैं। किसान की पत्नी बहुत प्रसन्न होती है तथा अपने घर वापिस लाकर कुछ दिनों में एक अच्छी सी हवेली तैयार कर लेती है । किसान जब एक दिन अपने घर वापिस आया तो यह देखकर चकित रह जाता है। अपनी पत्नी से पूछता है कि-'यह हवेली किसने बनवाई, यह किसकी है?' पत्नी उत्तर देती है कि-'यह हवेली आपकी ही है। एक दिन एक पथरी खेत से उठाकर मैं घर ले आई थी, उसकी सेठ ने इतनी अशर्फियाँ दी हैं कि यह हवेली तैयार हो गयी ।' यह सुनकर किसान सेठ के घर जाता है, उस पत्थरी को देखता है । पुनः घर वापिस आता है और अपना सिर पीट-पीट कर रोने लगता है। कहता है ये तो मुझे बहुत प्राप्त हुई थीं, किन्तु मैंने इन्हें एक-एक करके सभी की सभी पक्षियों को उड़ाने में फैंक दी हैं ।
जिस प्रकार किसान ने लालों की कीमत नहीं समझकर अज्ञानवश यूँ ही लाल फैंक दिये, और जीवन पर्यंत घर से खेत और खेत से घर फिरता हुआ भोगों में फँसा रहकर जीवन निकाल दिया। इसी प्रकार ये मानव अपने जीवन के अमूल्य क्षणों को संयम धारण न करके असंयम में खो देता है और अन्त समय में बहुत कष्ट उठाता है। इसलिए सद्गृहस्थ को संयम धारण करना अनिवार्य ही है।
त्याग से संयम धारण होता है, संयम से जीवन निखरता है, जीवन निखरने से सुख-शांति की प्राप्ति होती है, इसलिए त्याग प्रवृत्ति जिसके जीवन में आ जाती है, वह अपना ही नहीं, औरों का भी उपकार करता है। इसीलिए किसी ने कहा है कि
गाँव की भलाई के लिए, मनुष्य अपने कुल को छोड़ दे। देश की भलाई के लिए, मनुष्य अपने गाँव को छोड़ दे || मानव समाज की भलाई के लिए, मनुष्य अपने देश को छोड़ दे। विश्व की भलाई के लिए, मनुष्य अपना सर्वस्व छोड़ दे ||
संयमी का भक्ष्य - अभक्ष्य विचार-व्रती श्रावक अपने खाने-पीने की वस्तुओं को देखभाल कर ग्रहण करता है। जहाँ जीवों का घात हो या घात होने की संभावना हो, वह उन वस्तुओं को ग्रहण नहीं करता। यहाँ कुछ वनस्पतियों, फलों तथा रस त्याग के सम्बन्ध में वर्णन करना अपेक्षित है।
वनस्पति - यह एक इन्द्रिय जीव का शरीर माना गया है। इसके साधारण और प्रत्येक के रूप में दो भेद किये गये हैं
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