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3. अनुप्रेक्षा- पढ़े हुए पाठ का मन से बार-बार चिंतन करना, अभ्यास करना, सो अनुप्रेक्षा है।
4.
आम्नाय - जो पाठ पढ़ा है, उसका शुद्धतापूर्वक पुनः पुनः उच्चारण करना आम्नाय है। 5. धर्मोपदेश-धर्मकथा या धर्म का उपदेश करना, धर्मोपदेश है।
पाँच प्रकार के स्वाध्याय, ज्ञान की अधिकता, प्रशंसनीय अभिप्राय, उत्कृष्ट उदासीनता, तप की वृद्धि और अतिचार की विशुद्धि इत्यादि इसके कारण कहे गये हैं।
सम्यग्ज्ञान के भेद या अंग-आचार्यो ने सम्यग्ज्ञान के निम्न आठ भेद या अंग बताये हैं
1. व्यंजनाचार
2. अर्थाचार
व्यंजन की शुद्धि |
अर्थ की शुद्धि ।
व्यंजन और अर्थ दोनों की शुद्धि ।
विनय, आदरपूर्वक स्वाध्याय करना ।
काल शुद्धि |
धारणसहित आराधना करना।
गर्वहीन होते हुए स्वाध्याय करना ।
ज्ञान प्रदाता गुरु के नाम का न छिपाना ।
3. उभयाचार
4. विनयाचार
5. कालाचार
6. उपाधनाचार
7. बहुमानाचार
8. अनिह्नवाचार
उपर्युक्त आठ अंगों का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है
1. व्यंजनाचार-अक्षरों के उच्चारण, व्यंजन आदि की शुद्धि, ग्रन्थ शुद्धि कहलाती है। दूसरे शब्दों में जिससे शब्दों का ज्ञान होता है, वह व्यंजनाचार है इसमें व्याकरण के अनुसार अक्षर, पद, मात्रा का शुद्ध पढ़ना-पढ़ाना होता है।
2. अर्थाचार - शब्द और अर्थ को ठीक-ठीक पढ़कर आगम को पढ़ना- पढ़ाना अर्थाचार कहलाता है।
3. उभयाचार - शुद्ध शब्द और अर्थ सहित सिद्धान्त को पढ़ना-पढ़ाना उभयाचार कहलाता है।
4. विनयाचार- पर्यंक आसन, पद्मासन आदि आसन से स्थित होकर अँजुलि जोड़कर नमस्कार कर जो पढ़ता है वह विनयाचार कहलाता है। शुद्धजल से हाथ-पैर धोकर पवित्र स्थान पर आसन लगाकर चौकी आगे रखकर आगम स्तुति को नमस्कार कर श्रुतशक्तिपूर्वक आगम का पढ़ना-पढ़ाना उत्तम विनयाचार है।
5. कालाचार - सूत्रग्रंथों को सुकाल में द्रव्यादि शुद्धि को करके जो पढ़ते हैं, उसकी वह कालशुद्धि उनके ज्ञान रूपी सूर्य को प्रगट करने के लिए होती है। अकाल अर्थात्
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