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________________ ___(3) चरणानुयोग-यह अनुयोग नीति से परिपूर्ण है। इसके माध्यम से हमें यह ज्ञात होता है कि मुनिधर्म व श्रावकधर्म क्या है तथा श्रावक और मुनि को कैसे अपने जीवन में चलना है। यदि अपने जीवन को पवित्र बनाना हो तो महापुरुषों के आचरण को देखकर, समझकर अपने जीवन में उतारना होगा। इस अनुयोग द्वारा हिंसा आदि पाँच पापों से बचाकर अणुव्रतों एवं महाव्रतों को धारण करके धर्ममार्ग पर आरूढ़ होने का उपदेश दिया जाता है। (4) द्रव्यानुयोग-इस अनुयोग से सम्बन्धित शास्त्रों में पंचास्तिकाय, छह द्रव्य, सात तत्त्व, नौ पदार्थ, हितकारी-अहितकारी भावों-बन्धमार्ग, मोक्षमार्ग, सम्बन्धी सत्यासत्य का निर्णय आदि का वर्णन होता है। इन शास्त्रों के द्वारा स्व-पर का भेद जीव को होता है, फलस्वरूप वह अपनी आत्मा में स्थिर होता हुआ अपना कल्याण कर लेता है। संक्षेप में हम कह सकते हैं कि भगवान् तीर्थकर अरहंत के द्वारा कहे गये 4 अनुयोगों-प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग के शास्त्रों को यथार्थ रूप से पढ़ना और पढ़ाना, इसी का नाम स्वाध्याय करना है। स्वाध्याय के अन्तर्गत सत्शास्त्रों का वाँचना, मनन करना, उपदेश देना आदि समाहित है। मोक्षमार्ग में इसका अत्यधिक महत्त्व है। जिनवाणी और अन्यवाणी में अन्तर-जिनवाणी और अन्यवाणी में यही सबसे बड़ा अन्तर है कि जिनवाणी जीव को आकलता रहित करके अपने परम धाम, स्व-आत्मा में पहुँचा देती है, जिसे मोक्ष कहा जाता है, किन्तु अन्यवाणी जीवन-मरण से मुक्त करने में असमर्थ रहती है। स्वाध्याय के भेद-आचार्य उमास्वामी कहते हैं किवाचनापृच्छनानुप्रेक्षाम्नायधर्मोपदेशाः॥ -तत्वार्थसूत्र-अ. 9. अर्थात् स्वाध्याय के पाँच भेद हैं1. वाचना-निर्दोष ग्रन्थ, उसका अर्थ तथा दोनों का भव्य जीवों को श्रवण कराना, वाचना है। 2. पृच्छना-संशय को दूर करने के लिए अथवा निश्चय को दृढ़ करने के लिए प्रश्न पूछना, पृच्छना है। नोट-(अपना उच्चपन दिखाने के लिए, किसी को नीचा दिखाने के लिए, किसी को हराने के लिए, किसी का उपहास करने के लिए, आदि खोटे परिणामों से प्रश्न करना पृच्छना की कोटि में नहीं आता। वास्तव में आगम को समझने के लिए जो प्रश्न किया जाता है वही पृच्छना है।) - - - 375
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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