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आरम्भी गुरु के उपासक नरक और तिर्यंच गति की प्राप्ति करते हैं। इस प्रकार बुद्धिमानों को गुरु की पहचान करके गुरु उपासना करना चाहिए। आरम्भ रहित एवं सम्यग्दर्शनादि गुण सम्पन्न गुरु की उपासना से स्वर्ग और मुक्ति सुख की प्राप्ति होती है। जैसे सेवक वर्ग अपने निश्छल व्यवहार और विनयपूर्वक आज्ञा पालन से राजा के मन में प्रवेश करके उसे अपना अनुरागी बना लेता है, उसी तरह गुरु के आने पर खड़े होना आदि कायिक विनय से, हित-मित भाषण आदि वाचनिक विनय से और गुरु के प्रति शुभ चिन्तन आदि मानसिक विनय से गुरु की आज्ञा का पालन करते हुए गुरु के मन में अपना स्थान बनाना चाहिए। यह सद्गृहस्थ का परम् कर्तव्य तथा स्वकल्याण के लिए आवश्यक है।
नि:संग हैं जो वायुसम निर्लेप हैं आकाश से, निज आत्मा में ही विहरते जीवन न पर की आस से। जिनके निकट सिंहादि पशु भी भूल जाते क्रूरता, उन दिव्य गुरुओं की अहो, कैसी अलौकिक शूरता। जहाँ धरे गुरु चरण, वहाँ की रज चन्दन बन जाती है। मरुस्थल में भी कल-कल करती, कालन्दी बह जाती है। पावन पग दो पड़ने से, भू पुष्प भूमि बन जाती है। निर्गम में भी पहचानी सी पगडण्डी बन जाती है।
तीसरा आवश्यक : स्वाध्याय इस पंचम काल में साक्षात् अरहंत भगवान का अभाव है हम सब अल्पज्ञों को मोक्षमार्ग का रास्ता दिखाने वाले श्रुत शास्त्र हैं। यद्यपि देव (अरहंत भगवान) से मूक उपदेश प्राप्त होता है, पर वह भी कितनी देर तक मन्दिर में रहकर प्राप्त किया जा सकता है? गुरु के द्वारा भी मौखिक उपदेश दिया जाता है, किन्तु वह भी कितनी बार। पहली बात तो आज सद्गुरु ही बहुत कठिनता से और बड़े भाग्य से दिखाई देते हैं। अतः गुरु प्रतिदिन दर्शन देते रहें, यह भी संभव नहीं दिखता। आज मिले, कल नहीं। वे तो रमतेजोगी हैं, वन-वन विचरते हैं। क्या जाने किधर निकल जाएँ और फिर जीवन में अन्धकार छा जाए। तात्पर्य यह है कि देवपूजा और गुरु उपासना यद्यपि जीवन में शान्ति का संचार करते हैं, किन्तु गृहस्थ का मन संसार में और गृहस्थी की उलझनों में अटका होने से वह अपना उपयोग अधिक समय तक देवपूजा आदि में नहीं लगा सकता। अत: गृहस्थों के अन्धकारमय जीवन में प्रकाश की किरण देने वाली केवल जिनवाणी ही है, जो दिन-रात गृहस्थों को घोर अन्धकार में रास्ता दिखाती रहती है। इस प्रकार गृहस्थों को शास्त्रस्वाध्याय प्रतिदिन करना उनका कर्तव्य ही नहीं वरन् आवश्यक है।
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