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वास्तविक मुक्तिलक्ष्मी को प्राप्ति करते हैं। इस प्रकार जैन लोग मूर्ति को देखकर उस मूर्तिमान् तीर्थङ्कर प्रभु की उपासना करते हैं। यदि जैन मूर्ति देखकर पत्थर की उपासना करते हैं कि पत्थर तू कहाँ से आया, तू बड़ा मनोज्ञ है, तब जैनों पर पत्थर की उपासना का दोष दिया जा सकता था; किन्तु ऐसा कदापि नहीं है।
इन तथ्यों से यह स्पष्ट हो जाता है कि जैन लोग मूर्ति पूजा क्यों करते हैं। वे पत्थर को नहीं पूजते अपितु उनमें स्थित अनन्त गुणों की पूजा करते हैं।
पूजा का फल- पूजा करने से पूर्व भगवान् के दर्शनों का लाभ मिलता है। भगवान् के दर्शनों की महिमा अपार है जिनमन्दिर में मात्र भगवान के दर्शन मिलने के सन्दर्भ में कहा जाता है कि
मन चिन्तु तव सहस्त्र फल, लखा फल गमन करे।
कोड़ाकोड़ी अनन्त फल, जब जिनवर दशैं। भगवान के दर्शन करने का विचार करने मात्र से हजार उपवास का फल प्राप्त होता है, यदि भगवान के दर्शन करने के लिए प्रस्थान करे तो एक लाख उपवास का फल मिलता है, यदि दर्शन कर ले तो एक कोड़ाकोड़ी उपवास का फल प्राप्त होता है-ऐसी महिमा भगवान अरहंत प्रभु के दर्शनों की बतलाई गई है। इतना ही नहीं इस जीव का कल्याण सिर्फ दर्शन-पूजा द्वारा ही बनता है. इसके अतिरिक्त कोई अन्य निमित्त इस संसार में विद्यमान नहीं हैं। यह बात निम्न दर्शन स्तोत्र से स्पष्ट हो जाती है
दर्शनं देवदेवस्य, दर्शनं पापनाशनम्। दर्शनं स्वर्गसोपानं, दर्शनं मोक्षसाधनम्॥ दर्शनेन जिनेन्दाणां, साधूनां वंदनेन च। न चिरं तिष्ठते पापं, छिद्रहस्ते यथोदकम्। वीतरागं मुखं दृष्ट्वा, पद्मरागसमप्रभम्। जन्म-जन्मकृतं पापं, दर्शनेन विनश्यति॥ दर्शनं जिनसूर्यस्य, संसारध्वांतनाशनम्। बोधनं चित्तपद्मस्य, समस्तार्थप्रकाशनम्॥ दर्शनं जिनचन्द्रस्य, सद्धर्मामृतवर्षणम्। जन्मदाहविनाशाय, वधन सुखवारिधे:।। जन्म-जन्मकृतं पापं, जन्मकोटिमुपार्जितम्। जन्ममृत्युर्जरारोगं, हन्यते जिनदर्शनात्।।
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