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________________ तो अग्नि तो सचित्त है, वह अचित्त नहीं हो सकती। इसके अतिरिक्त और भी जीव-जन्तु आकर अग्नि में गिरकर मर जाएंगे। इस प्रकार हिंसा होने से धर्म नहीं अपितु अधर्म ही होगा जिसका फल संसार भ्रमण ही है। अत: आप थोड़ी-सी धूप थाली में चढ़ाकर अपने भाव बना लें। यही उचित है और शास्त्रानुकूल है। 8. फल-यह अन्तिम पूजन द्रव्य है। आचार्य कहते हैं कि उच्चैः फलाय परमामृतसंज्ञकाय, नानाफलैर्जिनपतिं परिपूजयामि। त्वद्भक्तिरेव सकलानि फलानि दत्ते, मोहेन तत्तदपि याचत एव लोके॥ -पग्रनन्धि पंचविंशतिका हे जिनेन्द्र! परमामृत है नाम जिसका ऐसे उच्चपद हेतु हम आपको नाना प्रकार के फलों से पूजते हैं। हे भगवन्। आपकी भक्ति ही सकल निर्दोष फल को देती है तो भी लोक में मोह से फल की याचना होती ही है। भगवान के सामने फल कैसे हो यह अच्छी तरह विचारना चाहिए। सूखे बादाम, इलायची, लौंग, जायफल आदि कुछ भी प्रयोग किये जा सकते हैं। हरा फल कदापि न चढ़ायें ये सचित्त होते हैं। सचित्त वस्तु भगवान को चढ़ाने में बहुत दोष लगता है। आप स्वयं समझदार हैं, जरा विचार कीजिए यदि मन्दिर का व्यास (माली) कहीं गया हुआ है तो वे हरे फल सड़ जाएंगे। सड़ने से जीवों की उत्पत्ति होगी और उनका मरण होगा। अतः सचित्त फल चढ़ाना हिंसापूर्ण कार्य सिद्ध होगा। इसके विपरीत यदि सूखे फल चढ़ायेंगे तो व्यास कभी भी आये, हिंसा होने का कोई अन्देशा नहीं है। इस प्रकार आपको हमेशा सूखे फल ही चढ़ाना चाहिए, यही धर्मानुकूल क्रिया है। वास्तव में भगवान तो वीतरागी हैं। उनको आप कैसा ही द्रव्य चढ़ाये, वह विवेक तो आप पर है। सिर्फ भाव शुद्ध बनाने के लिए सामग्री का सहारा लिया जाता है। यदि उसमें हिंसात्मक क्रिया होती है तो वह धर्म नहीं पाप ही होगा। पं. दौलतराम जी भी कहते हैं रागादि भावहिंसा समेत, दर्वित स थावर मरण खेत। जे क्रिया तिन्हें जानहुँ कुधर्म, तिन सरधै जीव लहै अशर्म॥ -छह डाला-द्वितीय ढाल जिन कार्यों के करने में राग-द्वेष पैदा होता हो एवं जिनमें नियम से त्रस और स्थावरों की हिंसा करनी पड़ती हो, उन्हें कुधर्म कहते हैं, ऐसे कुधर्म को धर्म मानने वाला जीव दुःख पाता है। इस प्रकार विवेकपूर्ण कार्य करना चाहिए। यहां कोई प्रश्न कर सकता है कि श्रावक गृहस्थ भी अग्नि, दीपक, हरे पत्ते का प्रयोग, मिठाई - 351
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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