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2. श्रोता दुःख से अत्यन्त भयभीत होना चाहिए, क्योंकि दुःख से भयभीत होगा तभी सुख देने
वाला उपदेश सुनेगा। 3. श्रोता सुख का इच्छुक हो, क्योंकि जिसको सुख की चाह नहीं होगी वह धर्म श्रवण नहीं
करेगा। 4. श्रोता को धर्म श्रवण करने की इच्छा हो, इच्छा बिना परिपूर्ण श्रवण नहीं होता है।
श्रोता के लक्षण हैं - (क) शुश्रूषा-सुनने की इच्छा। (ख) श्रवण-सुनना (ग) ग्रहण-मन द्वारा जानना। (घ) धारणा-नहीं भूलना। (ङ) विज्ञान-विशेष विचार करना। (च) ऊहापोह-प्रश्नोत्तर
करके निर्णय करना। (छ) तत्त्वविनिवेश-तत्त्व श्रद्धान का अभिप्राय। 5. श्रोता को दयामय धर्म सुनना चाहिए, वह धर्म अहिंसा धर्म है। 6. जिसका खण्डन किया जा सके ऐसा धर्म नहीं सुनना चाहिए, वह धर्म नहीं अधर्म है। 7. श्रोता हठाग्रह आदि दोषों से रहित हो, क्योंकि हठाग्राही को शिक्षा नहीं लगती।
श्रोताओं के तीन भेद कहे हैं-उत्तम, मध्यम, जघन्य।
उत्तम श्रोता-उत्तम श्रोता भी दो प्रकार के होते हैं-1. गाय जैसा, 2. हंस जैसा। 1. गाय जैसा-जैसे गाय चारा कम खाती है, दूध अधिक देती है। उसी प्रकार गाय की भांति
उत्तम श्रोता सुनता तो कम है लेकिन आचरण अधिक करता है। 2. हंस जैसा-जैसे हंस दूध पी लेता है और पानी छोड़ देता है। उसी प्रकार उत्तम श्रोता भी
हंस की तरह उत्तम बात को ग्रहण कर लेता हैं तथा निकृष्ट को छोड़ देता हैं।
मध्यम श्रोता-मध्यम श्रोता दो प्रकार के होते हैं-1. मिट्टी जैसा, 2. तोता जैसा। 1. मिट्टी जैसा-जैसे मिट्टी पानी बरसने पर कोमल हो जाती है तथा धूप पड़ने पर सूख
जाती है, उसी तरह श्रोता को धर्मोपदेश सुनते समय तो वैराग्य आता है, जब विषयों की
(गर्मी) धूप पड़ती है तो फिर रागी हो जाता है। 2. तोता जैसा-जिस प्रकार तोता को कुछ रटा दो, तो रट तो लेता है, पर उसे उसकी
भाव-भाषना नहीं होती, उसी प्रकार श्रोता भी धर्मोपदेश को सुनकर रट भी लेते हैं लेकिन भाव-भाषना से रहित होते हैं।
जघन्य श्रोता-जघन्य श्रोता 10 प्रकार के होते हैं-1. बकरा जैसा, 2. बिलाव जैसा, 3. भैंसा जैसा, 4. बगुला जैसा, 5. डांस जैसा, 6. सर्प जैसा, 7. जौंक जैसा, 8. छलनी जैसा, 9. फूटे घड़े जैसा, 10. पत्थर जैसा।
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