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________________ जो नाक आदि छेदन के, काटने के, मारने के, खींचने के हिंसा व्यापार करने के अथवा चोरी करने आदि के वचन कहने में आवें, वे सदा सावध अर्थात् पाप सहित असत्य वचन हैं, क्योंकि इनमें प्राणियों का घात होता है, इसलिए जहाँ हिंसा है वहाँ सत्य नहीं माना जायेगा। (3) अप्रिय वचन बोलने-के सन्दर्भ में आचार्य अमृतचन्द्र कहते हैं अरतिकर भीतिकरं खेदकरं वैरशोककलहकरम्। यदपरमपि तापकरं परस्य तत्सर्वमप्रियं ज्ञेयम्॥ -पुरुषार्थसिध्युपाय, 98 जो वचन दूसरों को बुरा लगने वाला हो, भय उत्पन्न करने वाला हो, खेद उत्पन्न करने वाला हो. बैर, शोक और कलह करने वाला हो तथा अनेक प्रकार के दु:ख उत्पन्न करने वाला हो, वे सभी वचन अप्रिय असत्य वचन ही हैं। इस प्रकार असत्य वचन हिंसा रूप ही हैं, इस बात को स्पष्ट करते हुए आचार्य आगे कहते हैं सर्वस्मिन्नप्यस्मिन्प्रमत्तयोगैकहे तुकथनं यत्। अनृतवचनेऽपि तस्मान्नियतं हिंसा समवतरति॥ -पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, 99 सभी प्रकार के झूठे वचनों में प्रमाद योग ही कारण है, इसलिए झूठ वचन बोलने से हिंसा अवश्य होती है क्योंकि हिंसा प्रमाद से ही होती है, प्रमाद के बिना हिंसा नहीं होती। तत्त्वार्थसूत्र में हिंसा का लक्षण 'प्रमत्तयोगात्प्राणव्यपरोपणं हिंसा' लिखा है, अर्थात् प्रमाद के योग से प्राणों का घात करना ही हिंसा है। कर्कश वचनों का परिणाम एक लकड़हारा जंगल गया हुआ था। वहाँ उसने लंगड़ाते हुए एक सिंह को दीन-हीन दशा में देखा। सिंह के पाँव में काँटा लगा हुआ था। सिंह लकड़हारे से प्रार्थना करता है कि मेरे पाँव से काँटा निकाल दो। लकडहारा शेर के पाँव से काँटा निकाल देता है। इससे प्रसन्न होकर सिंह कहता है कि तुम अपने ऊपर लकड़ियों का इतना बोझ क्यों लादते हो, मेरी पीठ पर लाद दिया करो, मैं उन्हें तुम्हारे घर पहुंचा दिया करूंगा। अब सिंह अपनी पीठ पर लकड़ियों का गट्ठर लादकर लकड़हारे के घर लाने लगा। लकड़हारा अब पहले से चौगुनी लकड़ियाँ लादने लगता है और कुछ ही दिनों में धनवान बन जाता है। ___ एक दिन पड़ोसी लकड़हारे से जिज्ञासावश प्रश्न करते हैं कि भाई! यह तो बताओ कि तुम इतने जल्दी धनवान कैसे बन गये। तब लकडहारा कहता है कि भाई! मुझे एक गधैया मिल गयी है जिसकी वजह से मैं धनी बन गया हूँ। यह बात सिंह सुन लेता है। सिंह लकड़हारे से कहता - 292
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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