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________________ व्यलिंगी दिगम्बर साधु की मुक्ति नहीं-दिगम्बर मुनि दो प्रकार के होते हैं। भावलिंगी मुनि और द्रव्यलिंगी मुनि। जो जीव पहले अन्त:करण से नग्न होता है अर्थात् संसार-शरीर-भोगों से विरक्त होता है, आत्मानुभूति से युक्त होता है तथा आत्मज्ञान से सहित होता है, वह ही तद्नुरूप वाह्य रूप से दिगम्बर हो जाता है। ये भावलिंगी मुनिराज ही अपने सब अनादि कर्मों की श्रृंखला को तोडकर मक्ति को प्राप्त हो जाते हैं। किन्तु इसके विपरीत जो आत्मज्ञान से शून्य होता है, वाह्य क्रियाओं को और वेश को अपनाता है और अपना मानता है, 'पर' को अपना समझता है, वह द्रव्यलिंगी मुनि चाहे जितना तप करे, उससे उसे कोई लाभ नहीं होने वाला है। ऐसे दिगम्बर मुनि ही द्रव्यलिंगी मुनि कहलाते हैं। इस संदर्भ में पं. बनारसी दास जी निम्न सवैये में कहते हैं: शीत सहै तन धूप दहे, तरु देत रहे करुणा उर आवे; झूठ कहे न अदत्त गहै, वनिता न चहे लव लोभ न जाने, मौन वै पठि भेद लेह नहिं, नेमज है व्रत रीति पिछान; यो निषहै परमोदा नहीं, बिन ज्ञान यही जिनवीर बखानै। जो मुनि शरद, ग्रीष्म और वर्षा ऋतु की बाधा को सहते हैं, पाँच महाव्रतों को निर्बाध पालते हैं, मौनपूर्वक तप करते हैं, किन्तु आत्मज्ञान से शून्य हैं, वे तो निश्चय से बहिरात्मा ही हैं, अत द्रव्यलिंगी मुनि संसार में बहुत काल तक भ्रमण करते रहते हैं। ये मुनि दो प्रकार के होते हैं-(1) सम्यक् द्रव्यलिंगी मुनि-जो दूसरे गुणस्थान से लेकर पाँचवे गुणस्थान पर्यंत होते हैं। ये मुनि देर-सवेर अपने संसार का अन्त कर लेते हैं। (2) मिथ्या द्रव्यलिंगी मुनि-ये प्रथम गुणस्थान वाले होते हैं, जो दीर्घकाल तक संसार में रहते हैं। दिगम्बरत्व अन्तरंग शुद्धि का प्रमाण-वास्तव में दिगम्बर वेश धारण नहीं किया जाता, वह तो स्वतः ही प्रकट हो जाता है। जब जीव अन्तरंग से विकार रहित हो जाता है, तब वह विषमताओं से अप्रभावित होता हुआ दिगम्बर हो जाता है। नग्न रहना सरल नहीं है। यह बाईस परीषहों में विशेष परीषह माना जाता है। कहा भी गया है कि अन्तर विषय वासना बरतै बाहर लोक लाज भय भारी। यातै परम दिगम्बर मुदा धर नहिं सकें दीन संसारी॥ ऐसी दुर्द्धर नगन परीषह जीतें साधु शीलव्रत धारी। निर्विकार बालक-वत निर्भय तिनके चरणों धोक हमारी॥ ऐसे शीलव्रत को धारण करने वाले मुनिराज ही दिगम्बर होते हैं। ऐसे शीलवान मुनि का व्यक्तित्व चमत्कार पूर्ण हो जाया करता है। ऐसे चमत्कारिक मुनि वर्तमान युग में आचार्य शान्ति सागर महाराज (छाणी) हुए हैं। इनके जीवन से सम्बन्धित एक चमत्कार पूर्ण घटना निम्न दृष्टान्त में दृष्टव्य है 262
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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