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________________ हैं? मित्र ने कहा- "ये सागरदत्त नामक ऋद्धिधारी को पूजने के लिए वन में जा रहे हैं। तब शिवकुमार मुनि के पास वन में जाता है और अपना पूर्वभव सुनता है। सुनकर वह विरक्त हो जाता है और मुनिदीक्षा ले लेता है। एक दृढ़धर नामक श्रावक के घर प्रासुक आहार होता है। इसके बाद असिधारा व्रत परम ब्रह्मचर्य को पालते हुए बारह वर्ष तक तप कर अन्त में सन्यास पूर्वकमरण करके ब्रह्मकल्प स्वर्ग में देव हो जाता है। वहाँ से आयु पूर्ण कर जम्बूकुमार नामक राजपुत्र हो, मुनिदीक्षा लेकर केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्ष को प्राप्त हो जाता है। इस प्रकार शिवकुमार मुनि ने शुभ प्रवृत्ति करते हुए मोक्ष को प्राप्त किया। शिवभूति मुनि कोई शिवभूति नामक मुनि थे। उन्होंने गुरु के पास बहुत से शास्त्रों को पढ़ा, किन्तु धारण नहीं कर पाये। तब गुरु ने ये शब्द पढ़ाये- "मा रुष मा तुष"। वे इन शब्दों को रटने लगे। इन शब्दों का अर्थ यह है कि "रोष मत करे, तोष मत करे "अर्थात् राग-द्वेष मत करो, इससे ही सर्वसिद्धि होती है। कुछ समय बाद उनको यह भी शुद्ध याद न रहा, तब " तुषमास ऐसा पाठ रटने लगे, दोनों पदों के "रु और तु भूल गये और "तुष माष" ही याद रह गया। एक दिन वे यही रटते एवं विचारते हुए कहीं जा रहे थे। रास्ते में एक स्त्री उड़द की दाल धो रही थी। स्त्री से कोई व्यक्ति पूछता है कि "तू क्या कर रही है" स्त्री ने कहा तुष और माष भिन्न-भिन्न कर रही हूँ। यह वार्ता सुनकर उन मुनि ने यह जाना कि यह शरीर ही तुष है और यह आत्मा माष है। दोनों भिन्न भिन्न हैं इस प्रकार भाव जानकर आत्मानुभव करने लगे। कुछ समय बाद घातिया कर्मों का नाश करके केवलज्ञान को प्राप्त हो गये। इस प्रकार शुभ में प्रवृत्ति कर शिवभूति मुनि ने "तुष- माष" जैसे शब्दों को रटते हुए भावों की विशुद्धता से केवलज्ञान पाया। विपरीत मुनियों के प्रकार कुछ साधु जो वाह्य में दिगम्बर भेष धारण किये हुए हैं, किन्तु जिनमे दिगम्बर जैन साधुओं के गुण नहीं पाये जाते हैं भोले जीव उनको साधु समझते हैं, अतः वे ठगे जाते हैं। ऐसे भ्रष्ट साधु पाँच प्रकार के होते हैं 1. पार्श्वस्थ साधु - जो साधु-भेष को धारण किये हुए वसतिका में आसक्ति रखते हैं, एक ही जगह निवास करते हैं, पिच्छिका आदि उपकरणों से आजीविका करते हैं, मुनिव्रतों के आचरण में शिथिल रहते हैं, मुनियों के पार्श्व अर्थात् पास में रहते हैं, इस प्रकार महाव्रतों के पालन करने में बहुत पीछे रहते हैं और आचरण शून्य होते हैं, उन्हें पार्श्वस्थ साधु कहते हैं। 2. संसक्त साधु - जो वैद्यक से और मन्त्र-तन्त्र से अथवा ज्योतिष से अपनी आजीविका करते हैं अथवा राजादि की सेवा करते हैं, उन्हें संसक्त साधु कहते हैं। दूसरे शब्दों में जो साधु 213
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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