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सबसे पहले मानसिक संकल्प को सुधारना आवश्यक है। हृदय से काम सम्बन्धी विचारों को निकाल देना अनिवार्य है यदि कोई स्त्री दिखाई दे तो उसे भोग की वस्तु समझना ठीक नहीं है, वरन् उसे देखकर माता, बहिन या पुत्री ऐसा पवित्र भाव उसके सम्बन्ध में जागृत होना चाहिए। ब्रह्मचर्य का और वर्णन अन्य शास्त्रों जैसे 'भगवती आराधना', 'अनगार धर्मामृत' आदि से जानना चाहिए। ब्रह्मचर्य व्रत की पाँच भावनाएँ-आचार्य उमास्वामी कहते हैं कि
स्त्रीरागकथाश्रवणतन्मनोहरांङ्गनिरीक्षणपूर्वरतानुस्मरणकृष्येष्टरसस्वशरीरसंस्कारत्यागा: पञ्च॥ ब्रह्मचर्य व्रत की पाँच भावनाएँ निम्न हैं 1. स्त्रियों में राग बढ़ाने वाली कथा सुनने का त्याग करना। 2. स्त्रियों के मनोहर अंगों को निरखकर देखने का त्याग करना। 3. अव्रत अवस्था में भोगे हुए विषयों के स्मरण करने का त्याग करना। 4. कामवर्धक गरिष्ठ रसों के सेवन करने का त्याग करना। 5. अपने शरीर को सजाना-सँवारना आदि संस्कारों का त्याग करना। ड. अपरिग्रह महाव्रत-परिग्रह का अर्थ है लेना, चारों ओर से ग्रहण करना। आत्मा से भिन्न
किसी भी परवस्तु को लेना, अपनी बनाना या मानना परिग्रह है। इसके दो भेद हैं (अ)
अन्तरंग परिग्रह और (ब) बहिरंग परिग्रह 1. अन्तरंग परिग्रह-आचार्य शिवकोटि कहते हैं
मिथ्यात्व, क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति, भय, शोक, जुगुप्सा, पुरुषवेद, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद- ये 14 अन्तरंग परिग्रह के भेद हैं। इनकी संक्षिप्त व्याख्या निम्न है1. मिथ्यात्व-जिसके उदय से व्यक्ति सर्वज्ञ कथित मार्ग से विमुख हो, जीवादि
तत्त्वों के यथार्थ स्वरूप का श्रद्धान करने में उत्सुक नहीं हो पाता है तथा, हित-अहित की पहचान करने में असमर्थ हो जाता है, उसे मिथ्यात्व परिग्रह कहते हैं।
2. क्रोध 3. मान 4. माया 5. लोभ- ये चार कषायें आत्मा के स्वभाव को कसती हैं
इनका त्याग नहीं करना परिग्रह है।
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