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परोपरोधाकरण-यदि कोई व्यक्ति अपने रहने योग्य स्थान में पहले से रहा हो या ठहर रहा हो तो उसे उस स्थान को छोड़कर चले जाने के लिए न कहना और जो ठहरना चाहता हो उसे रहने के लिए मना नहीं करना। भैक्ष्यशुद्धि-मुनिधर्म के निरूपक आचार शास्त्रों की आज्ञा के अनुसार शुद्ध आहार लेना। सधर्माविसंवाद-अपने साधर्मी मुनि आदि से यह वसतिका, शास्त्र, कमंडलु आदि मेरे हैं,
ये तम्हारे हैं इत्यादि रूप में विसंवाद (विवाद-कलह) न करना। घ. ब्रह्मचर्य महाव्रत-विश्व के सभी धर्म ग्रन्थों में ब्रह्मचर्य की मुक्त कंठ से प्रशंसा की गई
है। सभी इसका महत्व स्वीकार करते हैं। इसका पालन करने वाला ब्रह्मचारी विविध
सिद्धियों का धारी हो जाता है। इस व्रत की जितनी प्रशंसा की जाये कम है। ब्रह्मचर्य के भेदप्रथम लौकिक ब्रह्मचर्य-इसके अन्तर्गत स्त्री मात्र या पुरुष मात्र के संसर्ग का पूर्णत: त्याग आता है। दूसरा आध्यात्मिक ब्रह्मचर्य-इसके अन्तर्गत "ब्रह्म" शब्द का अर्थ "आत्मा" है। अपने आत्मा में रमण करने को ब्रह्मचर्य कहते हैं। शास्त्रों में लिखा है
निरस्तान्यांगरागस्य, स्वदेहेपि विरागिणः।
जीवे ब्रह्मनि या चर्या, ब्रह्मचर्यतदीर्यते॥ ___ स्त्री आदि पर के शरीर से राग को छोड़कर, अपने शरीर से भी विरक्त रहने वाले के अपनी आत्मा में जो लीनता होती है, वह ब्रह्मचर्य कहलाता है।
उपर्युक्त दृष्टि से किसी भी पर पदार्थ से प्रेम करना या उसमें उपयोग लगाना ही व्यभिचार है। लौकिक ब्रह्मचर्य को पूर्णतः प्राप्त किये बिना कोई भी आध्यात्मिकता को नहीं पा सकता। जिन्होंने ब्रह्मचर्य पर विजय नहीं पायी है, वे स्त्री या पुरुष एक दूसरे को देखकर परस्पर आकर्षित होते हैं। इस आकर्षण का असर उनके शरीर पर ही नहीं, मन और आत्मा पर भी होता है। मन में विकार भाव उत्पन्न होते हैं। शरीर में स्थित धातु और उपधातु चंचल हो जाते हैं। इस तरह मैथुन के संकल्प से जब शरीर ही अपनी ठीक दशा में नहीं रहता, तब आत्मा तो अपने स्वरूप में कैसे लीन रह सकती है? इसलिए ब्रह्मचर्य व्रत को धारण करने के इच्छुक पुरुष को पहले स्त्री मात्र से और स्त्री को पुरुष मात्र से राग भाव हटा लेना चाहिए। इन्द्रियों को अपने विषयों की ओर लगाने तथा उससे हटाने में मन प्रधान है। इसलिए जो इन्द्रियों को अपने वश में करना चाहता है, उसे चाहिए कि वह मन को जीते, उसे अपने वश में करे। ब्रह्मचर्य प्राप्ति के लिए
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