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________________ की वृद्धि हो उसी प्रकार धर्मात्मा के भी धर्म में कोई अपवाद हो, तो ऐसा कार्य नहीं करते परन्तु धर्म की प्रभावना हो, वही करते हैं यदि कभी कोई गुणवान धर्मात्मा में कदाचित् दोष आ जाय उसे गौण करके उसके गुणों को मुख्य करते हैं और एकान्त में बुलाकर उसे प्रेम से समझाते हैं, जिससे उसका दोष दूर हो तो धर्म की शोभा बढ़े। ___ उसी प्रकार यहाँ जब सभी लोग चले गये, बाद में जिनभक्त सेठ ने भी उस सूर्य नामक चोर को एकान्त में बुला लिया और कहा- “भाई! ऐसा पाप कार्य तुम्हें शोभा नहीं देता। विचार तो कर कि तू यदि पकड़ा जाता तो कितना दुख भोगना पड़ता तथा इससे जैनधर्म की भी कितनी बदनामी होती। लोग कहते हैं कि जैनधर्म के त्यागी ब्रह्मचारी भी चोरी करते हैं। इसलिए इस धन्धे को तू छोड़ दे।" वह चोर भी सेठ के ऐसे उत्तम व्यवहार से प्रभावित हुआ और स्वयं के अपराध की क्षमा मांगते हुए उसने कहा “सेठ जी! आपने ही मुझे बचाया है, आप जैनधर्म के सच्चे भक्त हो। लोगों के समक्ष आपने मुझे सज्जन धर्मात्मा कर पहचान करायी, अतः मैं भी चोरी छोड़कर सच्चा धर्मात्मा बनने का प्रयत्न करूंगा। सच में जैनधर्म महान् है और आप जैसे सम्यग्दृष्टि जीवों को ही वह शोभा देता है।" इस प्रकार उस सेठ के उपग्रहन गुण से धर्म की प्रभावना हुई। सम्यक्त्व का छठा अंग (स्थितिकरण) समयसार में आचार्य कुन्दकुन्द कहते है: उम्मग्गं गच्छतं संग पि मग्गे ठवेदि जो चेदा। सो ठिदिकरणाजुत्तो सम्मादिट्ठी मुणेयव्वो।।234 उन्मार्गत निजभाव को लावें स्वयं सन्मार्ग में। वे आत्मा थितिकरण सम्यग्दृष्टि हैं यह जानना। जो चेतियता उन्मार्ग में जाते हुए अपनी आत्मा को भी सन्मार्ग में स्थापित करता है, उसे स्थितिकरण युक्त सम्यग्दृष्टि जानना चाहिए। रत्नकरण्डश्रावकाचार में आचार्य समंतभद्र कहते हैं: दर्शनाचरणाद्वापि, चलता धर्म वत्सलै:। प्रत्यवस्थापनं प्राज्ञैः स्थितिकरणमुच्यते॥16 सम्यग्दर्शन से अथवा सम्यग्चारित्र से भी डिगते हुए जीवों को धर्म प्रेम रखने वाले जीवों के द्वारा फिर से उसी में लगा देना, स्थितिकरण के ज्ञाता विद्वानों द्वारा स्थितिकरण अंग कहा गया है। 149
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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