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ऐसी सुन्दरी प्राप्त होने से कामसेना वेश्या अत्यन्त खुश हुई, अब मैं बहुत धन कमाऊँगी-ऐसा समझ कर वह अनन्तमती को भ्रष्ट करने का प्रयत्न करने लगी। उसने अनन्तमती से अनेक प्रकार की कामोत्तेजक बातें की, बहुत लालच दिखलाया तथा न मानने पर बहुत दु:ख दिया, परन्तु अनन्तमती अपने शीलधर्म से रंच मात्र भी डिगी नहीं। ____ कामसेना ने तो ऐसी आशा की थी कि इस युवती का व्यापार करके वह बहुत धन कमायेगी लेकिन उसकी आशा पर पानी फिर गया। उस विषय लोलुपी बाई को क्या मालूम था कि उस युवती कन्या ने तो धर्म के लिए ही अपना जीवन अर्पित किया है और संसार के विषय भोगों की उसे थोडी भी आकांक्षा नहीं है, सांसारिक भोगों के प्रति उसका चित्त बिलकुल नि:कांक्ष है अतः शील की रक्षा करने के लिए जो भी दुःख उसे भोगने पड़े, उससे वह भयभीत नहीं हुई। ___जिसका चित्त नि:कांक्ष होता है, वह भयभीत होने पर भी संसार के सुख की क्यों इच्छा करेगा। जिसने अपने आत्मा में ही परम सुख का निधान देखा है, वह धर्मात्मा धर्म के फल में सांसारिक सुख की स्वप्न में भी इच्छा नहीं करता, ऐसा नि:कांक्ष होता है। __ अनन्तमती ने भी शील गुण की दृढ़ता से संसार के सभी वैभव की आकांक्षा छोड़ दी थी, अत: किसी भी वैभव से ललचाएं बिना वह शील में अटल रही। ___अहो! स्वभाव के सुख के सामने संसार के सुख की आकांक्षा कौन करेगा सच देखा जाये तो संसार के सुख की आकांक्षा छोड़कर नि:कांक्ष होती हुयी अनन्तमती की यह दशा ऐसा सूचित करती है कि उसके परिणाम का रुख स्वभाव की ओर झुक रहा है। धर्मोन्मुख जीव संसार के दुःख से कभी डरते नहीं और अपना धर्म कभी छोड़ते नहीं, परन्तु अन्य संसारी जीव संसार के सुख की इच्छा से अपने धर्म में अटल नहीं रह सकते, दुःख से डर कर अपने स्वधर्म को छोड़ देते हैं।
जब कामसेना ने जान लिया कि अनन्तमती उसको किसी भी प्रकार से प्राप्त नहीं हो सकती तब उसे उसने बहुत धन लेकर सिंहरत्न नामक राजा को सौंप दिया। अब बेचारी अनन्तमती मानो मगर के मुँह से निकलकर सिंह के जबड़े में जा पड़ी। वहाँ उस पर और नई मुसीबत आ गयी। दुष्ट सिंह राजा भी उस पर मोहित हो गया, परन्तु अनन्तमती ने उसका भी तिरस्कार किया। ___तब विषान्ध बनकर वह पापी सिंह राजा अभिमान पूर्वक उस सती पर बलात्कार करने के लिए तैयार हुआ परन्तु एक क्षण में उसका अभिमान चूर-चूर हो गया। सती के पुण्य-प्रताप से वहाँ वन देवी प्रगट हुयी और दुष्ट राजा को फटकारते हुए कहने लगी - सरदार! भूलकर भी इस सती को हाथ लगाना नहीं।" सिंहराजा तो वनदेवी को देखकर ही पत्थर जैसा हो गया,
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