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________________ प्रकाशकीय भारत की राजधानी दिल्ली के समीपस्थ औद्योगिक नगरी गाजियाबाद में परमपूज्य आचार्य 108 श्री धर्मभूषण जी महाराज का पावन वर्षायोग हमारे शतसहस्रपुण्यों का अमृत फल रहा। अपनी सैद्धान्तिक दृढ़ता और निर्दोष तपश्चर्या के पालन के लिए विख्यात आचार्य श्री के चरण सामीप्य में आने के पश्चात् हमने देखा संघस्थ ब्रह्मचारी गण कतिपय डायरियों में कुछ लिखते रहते हैं। एक दिन हमने पूछा ब्र० आप रात दिन क्या लिखा करते हैं। ब्र० जी बोले- पूज्य आचार्य श्री सदैव ज्ञान पिपासु एवं स्वाध्याय प्रेम रहे हैं। कुछ डायरियाँ तो इनके द्वारा किए गए संकलन की हैं एवं कुछ हमने गुरुदेव के प्रवचनों को संग्रहीत किया है जिनको हम व्यवस्थित कर रहे हैं इनसे हमारा ज्ञानोपार्जन भी ही रहा है साथ ही आचार्य श्री संघ के विशेष नियमों और सिद्धान्तों को लिख देने से परम्परा में भी इनका पालन होता रहेगा। हमे भी लगा ब्रह्मचारी जी बहुत महत्त्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं। आचार्य श्री के प्रवचनों और संघ के सिद्धान्तों को तो स्थाई रूप से लिखित करके रखना ही चाहिए। हम सबने बैठकर सर्वप्रथम निर्णय लिया कि यदि इन सब प्रवचनों/संकलनो को सुव्यस्थित कराके जैन समाज, गाजियाबाद द्वारा प्रकाशित कर दिया जाय तो यह समाज के लिए बहुत उपयोगी रहेगा तथा समाज की धरोहर बन जाएगे ये ग्रन्थ। हमने पूज्य आचार्यश्री जी से अपनी भावना अभिव्यक्त की, कुछ संकोच के साथ उन्होंने यह आदेश देते हुए स्वीकृति दी " भाई देखो मैं सदैव नाम ख्याति से दूर रहा हूँ प्रकाशन ऐसा हो जिससे हमारी परम्परा व संघ की गरिमा यथावत् रहे कहीं भी ऐसा न लगे हम अपने नाम के लिए आज्ञा दे रहे हैं। " हमने उन्हें पूर्ण आश्वस्त किया। अब समस्या यह थी कि यह लगभग 2000 पृष्ठों का विशाल, अत्यधिक श्रम साध्य कार्य सैद्धान्तिक एवं प्रमाणिकता सम्पन्न कैसे हो क्योंकि यह कार्य जैनदर्शन हिन्दी संस्कृत के अध्येता के साथ जैनत्व एवं गुरुओं के लिए समर्पित विद्वानों के बिना संभव नहीं हो सकेगा । हमें भी समाधान मिल गया। इसके लिए हमने हमारे नगर में विद्यमान डॉ० नरेन्द्रकुमार जैन और डॉ० नीलम जैन से अनुरोध किया कि वे अपना अमूल्य समय हमें देकर समाज की ग्रंथ प्रकाशन की प्रबल भावना को साकार कर कृतार्थ करें। दोनों विद्वानों ने सहर्ष अपनी सहज स्वीकृति प्रदान की। हम दोनों विद्वानों के प्रति सर्वप्रथम आभार प्रकट करते हैं जिन्होंने निःस्वार्थ भाव एवं अत्यधिक निष्ठा से इस महनीय कार्य को सम्पादित कर ग्रंथों को श्लाघनीय स्वरूप प्रदान किया । एतदर्थ हम दोनों निःस्पृह विद्वद्रत्नों के अत्यन्त कृतज्ञ एवं उनके प्रति श्रद्धावनत हैं। xiv
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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