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________________ जीव तत्त्व पर विशेष आचार्य नेमिचन्द्र ने द्रव्यसंग्रह की गाथा 2 में जीव के नव अधिकार कहे हैं। जीवो उवओगमओ, अमुत्तिकत्ता सदेहपरिमाणो । भोत्ता संसारत्थो, सिद्धो सो विस्ससोड्ढगई ॥ २ ॥ वह जीव जीने वाला है, उपयोगमय है, अमूर्तिकर है, कर्ता है, छोटे बड़े शरीर के बराबर रहने वाला है, कर्मों के फल को भोगने वाला है, संसारी है, सिद्ध है, और स्वभाव से ऊर्ध्व को गमन करने वाला है। आचार्य आगे कहते हैं तिक्काले चदुपाणाइंदिय बलमाउ आणपाणो या ववहारा सो जीवो, णिच्चयणयदो दुचेद्णा जस्य ॥ ३ ॥ जिसके व्यवहार से इन्द्रिय, बल, आयु और श्वसोच्छवास चार प्राण होते हैं और निश्चय से जिसके चेतना होती है वह जीव है। पं. दौलतराम छहढाला में जीव के तीन भेद बताते हुए कहते है "बहिरात्म अन्तरातम परमातम जीव त्रिधा हैं । " बहिरातम का स्वरूप बताते हुए आचार्य योगीन्दु योगसार में कहते हैंमिच्छदंसणमोहियउ परुअप्पा ण मुणेइ । सो बहिरप्पा जिणभणिउ पुण संसार भमेइ ॥ ७ ॥ मिथ्यादर्शन से मोही जीव परमात्मा को नहीं जानता है, वह बहिरात्मा है वह बारम्बार संसार में भ्रमण करता है। ऐसा श्रीजिनेन्द्र देव ने कहा है। आगे अन्तरात्मा का स्वरूप बताते हुए परमात्मप्रकाश में योगीन्दु देव कहते हैं देह विभिण्णउ णाणमउ, जो परमसमाहि परिट्ठियउ, पंडिउ जो देह से भिन्न अपने आत्मा को ज्ञानमयी परमात्मा रूप में देखता है वह परम समाधि में स्थिर हो ध्यान करता है वही पंडित अन्तरात्मा है। परमप्पु णिए । जि हवेइ ॥ १४ ॥ परमात्मा का स्वरूप बताते हुए आचार्य योगीन्दु कहते हैं णिम्मलु णिक्कलु सुद्ध जिणुविण्हु बुद्ध सिव संतु । सो परमप्पा जिणभणिउ एहउ जाणि णिभंतु ॥ ९ ॥ जो कर्म मल व रागादि मल रहित है, जो निष्कल अर्थात् शरीर रहित है, जो शुद्ध व अभेद एक है, जिसने आत्मा के सर्व शत्रुओं को जीत लिया है, जो विष्णु है अर्थात् ज्ञान की अपेक्षा सर्वलोकव्यापी है, सर्वज्ञ है, जो बुद्ध है अर्थात् स्वपर तत्त्व को समझने वाला है, जो शिव है परम कल्याणकारी है, जो परमशांत व वीतरागी है वही परमात्मा है, ऐसा जिनेन्द्र देव ने कहा है। इस संदर्भ में दृष्टान्त हैं 78
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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