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जैन दर्शन
अन्थों के मान का आधार है।।
जैनों के अत सम्बन्धी इस विचित्र सिद्धान्त का कारण यह तथ्य है कि उनकी परम्परा में आरंभ में कर्ण द्वारा सुने गये ज्ञान को अत माना गया था। धीरे-धीरे इसका अर्थ हो गया शेष सभी इन्द्रियों के माध्यम से भी प्राप्त ज्ञान । जैनों का मत है कि ज्ञान के उपयोग के लिए इसका संचरण होना जरूरी है, और संचरण भाषा के माध्यम से ही हो सकता है और क्योंकि शाब्दिक संवेदनों को सीधे कर्ण से ही ग्रहण किया जा सकता है, इसलिए मति अत के सदैव पहले रहती है । यद्यपि कर्ण द्वारा शब्द-वचनों को ही ग्रहण किया जाता है, इस कर्गजन्य बोध के मूल में भी अशाब्दिक वचन (विचार) ही होते हैं। और फिर, इन्द्रियजन्य अनुभूति चाहे किसी भी प्रकार की--स्पर्श, रूप, रस या गंध से सम्बन्धित-क्यों न हो, इन सबको मनुष्य की विचार-प्रक्रिया से गुजरना होता है. और अन्ततोगत्वा भाषा में यानी ध्वनि-संकेतों में बदला जा सकता है। फिर यह ध्वनि-संकेत श्रोता के कर्णन्द्रियों तक पहुंचते हैं और उसमें 'समाजाते हैं। चूंकि विचार के लिए शब्दों का इस्तेमाल करने से श्रवण की स्थिति भी जरूरी है, और शब्द ही एक ऐसा माध्यम है जिसके द्वारा इन्द्रियजन्य अनुभूतियों को सामान्यतः प्रकट किया जा सकता है, इसलिए मतिज्ञान सदैव श्रुतज्ञान के पूर्व रहता है।
जैन परम्परा में श्रत का जो तीन प्रकार का अर्थ पाया जाता है (धर्मसाहित्य, लिखित या उच्चारित संकेत और अव्यक्त शब्दज्ञान) उसके बारे में तातिया का मत है कि जैन चिंतन के विकास में विमर्श की शनैः-शनै: बढ़ती सूक्ष्मता के कारण इनका उदय हुआ है। उनके कहने का अर्थ यह नहीं है कि श्रत के इन तीन प्रकार के अयों के विकास का कालक्रमानुसार अध्ययन किया जा सकता है। वह कहते हैं कि उन्हीं जैन विचारकों ने अत को धर्म-साहित्य की धारणा से आरंभ करके अव्यक्त शब्दज्ञान की धारणा तक पहुंचा दिया होगा। इस सम्बन्ध में जैन साहित्य में इतना ब्यापक, विविध एवं सूक्ष्म विवेचन उपलन्ध है कि उसमें कालान्तर के जैन लेखकों की मौलिक देन की खोज कर पाना कठिन हो जाता है।"
श्रत और मति के बीच के भेद या सम्बन्ध के बारे में जैन साहित्य में दो प्रकार के मत देखने को मिलते हैं । एक मत के अनुसार मति और अत एक-दूसरे से पूर्णतः भिन्न हैं और दूसरे मत के अनुसार इन दोनों में कोई भेद नहीं है।
प्रथम मत के दो आधार हैं : (1) मति श्रुत से इसलिए भिन्न है कि इसमें शब्दों के लिए कोई स्थान नहीं है । शब्द-संयोजन श्रुत की खास विशेषता है।
"14.बही, .53