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________________ जैन दर्शन उसे पूरी सफलता नहीं मिलती। अगली अवस्था में लगभग पूरी सफलता मिल जाती है । लगता है कि व्यक्ति ने स्वयं पर पूरा अधिकार प्राप्त कर लिया है; परन्तु मन्द कषाय अभी उस पर कुछ हावी रहते हैं । अतः इस अवस्था में भी जीव की पूर्ण शक्ति प्रकट नहीं होती; संयम में कुछ प्रमाद बना रहता है, इसलिए इसे प्रमत्त संयत गुणस्थान कहते हैं। तीसरी अवस्था व्यक्ति को पूर्ण सफलता मिल जाती है; वह स्वयं पर पूर्ण अधिकार प्राप्त कर लेता है। आत्मा शरीर पर विजय प्राप्त कर लेती है। प्रमाद पूर्ण रूप से समाप्त हो जाता है । यह अवस्था इसलिए महत्त्व की है कि इसके आगे व्यक्ति पूर्ण या केवल सापेक्षिक आध्यात्मिक विशुद्धि की स्थिति पर पहुंच जाता है । परम आध्यात्मिक विशुद्धि की प्राप्ति कर्म के दुष्ट प्रभावों के पूर्ण विनाश से ही होती है, और इस ओर आगे बढ़ने के मार्ग को क्षपक अणि कहते हैं। सापेक्षिक आध्यात्मिक विशुद्धि में कर्म के प्रभावों का मात्र उपशमन होता है, इसलिए इसे उपशन श्रेणि कहते हैं । 168 अवस्था 8 : निवृत्तिबादर संपराय गुणस्थान : इस अवस्था में आत्मा अद्भुत मानसिक शक्ति प्राप्त करती है, जिसका कर्मों का दमन तथा विनाश करने में इस्तेमाल हो सकता है। इस अवस्था में जीव विशुद्ध हो जाने के कारण कर्मों के पूर्व - बन्धन की तीव्रता को अल्पावधि में क्षीण कर सकता है। नये कर्मों के साथ भी सम्पर्क होता है, परन्तु इनकी कालावधि तथा तीव्रता सीमित होती है। नयी इच्छाशक्ति के कारण इस अवस्था में व्यक्ति में बड़ा विश्वास पैदा हो जाता है। अवस्थाएं 9 व 10 : अनिवृत्ति बादर संपराय गुणस्थान और सूक्ष्म संपराय गुणस्थान : ये एक प्रकार से 'आध्यात्मिक युद्ध' की अवस्थाएं हैं; इनमें व्यक्ति अपने नये प्राप्त शस्त्रों का इस्तेमाल करता है। पहली अवस्था में मुख्यतः स्थूल संवेगों तथा आम प्रवृत्तियों से युद्ध होता है। आगे की अवस्था में सूक्ष्मरूप संवेगों तथा कषायों से युद्ध होता है। अवस्था 11 : उपशान्त कवाय वीतराग छद्मस्थ गुणस्थान : आध्यात्मिक विकास की इस अवस्था में कषायों का पूर्णतः विनाश हो जाता है, और इस प्रकार व्यक्ति कर्म के दुष्ट प्रभावों से मुक्त हो जाता है। वह वीतरागी बन जाता है। फिर भी कषायों तथा संवेगों का पुनः उदय होने की संभावना रहती है और इसलिए कर्म के प्रभाव पुनः लद जाने का खतरा रहता है। उपशम अजि की दृष्टि से यह अवस्था सर्वोच्चता की द्योतक है । अवस्था 12 : क्षीण कषाय वीतराग छद्मस्थ गुणस्थान : इस अवस्था में कर्म - प्रभाव पूर्णतः नष्ट हो जाते हैं, और जीव क्षीणक अणि के अन्त पर पहुंच जाता है । यह अवस्था क्षीण कषायों के शिखर की द्योतक है।
SR No.010094
Book TitleJain Darshan ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorS Gopalan, Gunakar Mule
PublisherWaili Eastern Ltd Delhi
Publication Year
Total Pages189
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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