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नैतिक नियम
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महावीर ने अपने अनुयायियों को जिन पांच महाव्रतों-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह की शिक्षा दी है, उनकी चर्चा हम पहले कर चुके हैं।
इन पांच महाव्रतों में पहले व्रत को सर्वाधिक महत्त्व का माना जाता है। जैन धर्म की प्रमुख विशेषता है कि इसमें अहिंसा के पालन पर सबसे अधिक बक दिया गया है | अहिंसा शब्द में जो निषेधार्थक प्रत्यय लगा हुआ है, उससे कुछ गलतफहमी होती है और अहिंसा की नैतिक शिक्षा में दयाभाव का जो दर्शन विद्यमान है उसे पूरी तरह नहीं समझा जाता । एस० सी० ठाकुर कहते हैं : 'अहिंसा' का शाब्दिक अर्थ सद्भावना तथा प्रेम का स्पष्ट भाव तो नहीं है, परन्तु मतलब करीब-करीब यही होता है । इसी प्रकार अहिंसा शब्द में व्याकरण का निषेधार्थक प्रत्यय होने पर भी यह स्पष्टतः दयाभाव के दर्शन का द्योतक है।"" इस शब्द का गहन अर्थ इस तथ्य से स्पष्ट होता है कि जैन दर्शन चूंकि चेतना के सातत्य (जैसा कि इस ग्रन्थ में पहले बताया गया है) में आस्था रखता है, इसलिए मानता है कि मनुष्य को किसी भी प्राणी की (आध्यात्मिक ) प्रगति में बाधा डालने का अधिकार नहीं - चाहे वह प्राणी एकेन्द्रिय ही क्यों न हो । पीड़ा पहुंचाने का अर्थ स्पष्ट रूप से बाधा डालना है, इसलिए बाधक न बनने की शिक्षा दी गयी थी ।
असा शब्द को कभी-कभी अवध ( वध न करना) के अर्थ में भी लिया जाता है । यद्यपि सतही तौर पर ये दोनों शब्द बिना किसी स्पष्ट भाव के निषेधार्थक शिक्षा के द्योतक हैं, तथापि गहन विश्लेषण के बाद पता चलता है कि इस शिक्षा मैं जीवन का स्पष्ट एवं सर्वांगीण दृष्टिकोण निहित है। अतः इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि अहिंसा की इस शिक्षा के पालन की काफी आलोचना भी हुई है। उदाहरणार्थ, जन धर्म सम्बन्धी अपने एक लेख में मोनियर विलियम्स ने लिखा है कि अहिंसा के पालन में जैन लोग अन्य सभी भारतीय सम्प्रदायों से
1. 'क्रिश्चियन एण्ड हिन्दू एथिक्स' (लंदन : जार्ज एलेन एण्ड अनविन लि०, 1969), पृ० 202