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स्यादवाद
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स्यावाद जैन तत्त्वमीमांसा का सर्वाधिक महत्त्व का अंग है। इसके अनुसार कोई भी एक कथन सम्पूर्ण वास्तविकता को पूर्णत: व्यक्त नहीं करता। स्याद शब्द का अर्थ है 'ऐसा हो' या 'यह भी संभव है। यदि तत्त्वमीमांसीय अन्वेषण का उद्देश्य वस्तु-जगत् को जानना है तो, जनों का कहना है कि, केवल कुछ सरल तात्विक कथनों से यह संभव नहीं है । वस्तु-जगत् बड़ा विलक्षण है, इसलिए कोई एक सरल कथन वास्तविकता के स्वरूप को पूर्णतः प्रकट नहीं कर सकता। इसी. लिए जैन दार्शनिकों ने विभिन्न कथनों के साथ 'स्याद्' जोड़ने की योजना प्रस्तुत की है । जैसा कि आगे स्पष्ट होगा, जैन दार्शनिकों ने एक दृढ़ कथन के स्थान पर सात कथन पेश किये हैं। दासगुप्त 'स्याद्वाद' की विशेषता के बारे में लिखते हैं : "प्रत्येक कथन की सत्यता केवल सापेक्ष होती है। कोई भी कपन परम सत्य नहीं होता । अतः सत्य की प्रत्याभूति के लिए प्रत्येक कथन के पहले 'स्याद्' जोड़ना जरूरी है। इससे स्पष्ट हो जायेगा कि वह कथन केवल सापेक्ष है, यानी उसके साथ कोई शर्त या दृष्टिकोण जुड़ा हुआ है, और वह किसी माने में परम नहीं है। कोई भी निर्णय पूर्णसत्य या पूर्ण असत्य नहीं होता। सभी निर्णय किसी अर्थ में सत्य होते हैं और किसी अन्य अर्थ में असत्य।"1
जैनों का नयवाद स्याद्वाद के लिए एक प्रकार की चौखट प्रस्तुत करता है; क्योंकि इसके अनुसार वस्तु-जगत् को विभिन्न दृष्टिकोणों से देखा जा सकता है, और किसी भी एक दृष्टिकोण को प्रामाणिक नहीं माना जा सकता। यही कारण है कि जनों ने चार्वाक तथा अढत आदि मतों की आलोचना करने के साथ-साथ उनके प्रामाणिक विचारों को स्वीकार भी किया है। इसका कारण यह है कि एक विशिष्ट दृष्टिकोण से विरोधी मतों के विचार सही थे। और इन्हीं मतों की जैनों ने इसलिए आलोचना की है कि इनमें एक विशिष्ट दृष्टिकोण को सर्वाधिक महत्त्व दिया गया है, और अन्य दृष्टिकोणों के होने से इनकार किया गया है। वस्तु-जगत् के बारे में कुछ ठोस जानकारी प्राप्त करने के लिए नयवाद का विस्तार करके सात तर्कवाक्यों पर आधारित स्याद्वाद की रचना 1. पूर्वो०, बण्ड प्रथम, पृ. 179