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जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व
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(३) अन्तरंग योग्यता और बहिरंग प्रतिकूलता - कार्य उत्पन्न नहीं होता । (४) अन्तरंग अयोग्यता और बहिरंग प्रतिकूलता –,,
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प्रत्येक प्राणी में दस संज्ञाएँ और जीवन-सुख की आकांक्षाएँ होती हैं ।
तीन एषणायें भी होती हैं-
(१) प्रायेषणा - मैं जीवित रहूँ ।
(२) पुत्तैषणा - मेरी सन्तति चले । (३) वित्तैषणा - मैं धनी बनूं ।
अर्थ और काम की इस आन्तरिक प्रेरणा तथा भूख, प्यास, ठंडक, गर्मी आदि-आदि बाहरी स्थितियों के प्रहार से प्राणी की बहिर्मुखी वृत्तियों का विकास होता है । यह एक जीवन-गत विकास की स्थिति है। विकास का प्रवाह भी चलता है। एक पीढ़ी का विकास दूसरी पीढ़ी को अनायास मिल जाता है । किन्तु उद्भिद-जगत् से लेकर मनुष्य-जगत् तक जो विकास है, वह पहली पीढ़ी के विकास की देन नहीं है। यह व्यक्ति विकास की स्वतन्त्र गति है । उदभिद् जगत् से भिन्न जातियां उसकी शाखाएं नहीं किन्तु स्वतन्त्र हैं । उद्भिदू जाति का एक जीव पुनर्जन्म के माध्यम से मनुष्य बन सकता है । यह जातिगत विकास नहीं, व्यक्तिगत विकास है ।
विकास होता है, इसमें दोनों विचार एक रेखा पर हैं । किन्तु दोनों की प्रक्रिया भिन्न है । डार्विन के मतानुसार विकास जाति का होता है और जैन दर्शन के अनुसार व्यक्ति का । डार्विन को आत्मा और कर्म की योग्यता ज्ञात होती तो उनका ध्यान केवल जाति, जो कि बाहरी वस्तु है, के विकास की ओर नहीं जाता । आन्तरिक योग्यता की कमी होने पर एक मनुष्य फिर से उदभिद जाति में जा सकता है, यह व्यक्तिगत हास है ।
प्राणी-विभाग
प्राणी दो प्रकार के होते हैं-चर और अचर । श्रचर प्राणी पांच प्रकार के होते हैं- पृथ्वी काय, अप काय, तेजस् काय, वायु काय और वनस्पति काय । चर प्राणियों के आठ भेद होते हैं - ( १ ) अण्डज ( २ ) पोतज ३) जरायुज (४) रसज ( ५ ) संस्वेदज ( ६ ) सम्मूच्छिम, (७) उभिज और (८) उपपातज ।