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________________ जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व {00 | कम स्पष्ट नहीं होता । श्रसंशी और संशी के इन्द्रिय ज्ञान में कुछ तरतम रहता है या नहीं ? मन से उसका कुछ सम्बन्ध है या नहीं ? इसे स्पष्ट करना चाहिए । काशी के केवल इन्द्रिय ज्ञान होता है, संशी के इन्द्रिय और मानस दोनों शान होते हैं । इन्द्रिय ज्ञान की सीमा दोनों के लिए एक है। एक किसी रंग को देखकर संशी और अशी दोनों चक्षु के द्वारा सिर्फ इतना ही जानेंगे कि यह रंग है । इन्द्रिय ज्ञान में भी अपार तरतम होता है। एक प्राणी चतु के द्वारा जिसे स्पष्ट जानता है, दूसरा उसे बहुत स्पष्ट जान सकता है। फिर भी अमुक रंग है, इससे श्रागे नहीं जाना जा सकता। उसे देखने के पश्चात् यह ऐसा क्यों ? इससे क्या लाभ? यह स्थायी है या अस्थायी ? कैसे बना? आदि-आदि प्रश्न या जिज्ञासाए मन का कार्य है। संशी के ऐसी जिज्ञासाएं नहीं होतीं । उनका सम्बन्ध अप्रत्यक्ष धर्मों से होता है । इन्द्रिय ज्ञान में प्रत्यक्ष धर्म से एक सूत भी आगे बढ़ने की क्षमता नहीं होती। संशी जीवों में इन्द्रिय और मन दोनों का उपयोग होता है । मन इन्द्रिय ज्ञान का सहचारी भी होता है और उसके बाद भी इन्द्रिय द्वारा जाने हुए पदार्थ की विविध अवस्थाओं को जानता है । मन का मनन या चिन्तन स्वतन्त्र हो सकता है किन्तु बाह्य विषयों का पर्यालोचन इन्द्रिय द्वारा उनका ग्रहण होने के बाद ही होता है, इसलिए संज्ञी ज्ञान में इन दोनों का गहरा सम्बन्ध है । जाति- स्मृति 1 पूर्वजन्म की स्मृति ( जाति-स्मृति ) 'मति' का ही एक विशेष प्रकार है। इससे पिछले नौ समनस्क जीवन की घटनावलियां जानी जा सकती हैं। पूर्व जन्म में घटित घटना के समान घटना घटने पर वह पूर्व परिचित सी लगती है। ईहा, अपोह, मार्गणा और गवेषणा करने से चित्त की एकाग्रता और शुद्धि होने पर पूर्व जन्म की स्मृति उत्पन्न होती है। सब समनस्क जीवों को पूर्व जन्म की स्मृति नहीं होती - इसकी कारण मीमांसा करते हुए एक आचार्य ने लिखा है- " जायमाणस्स जं दुक्खं, मरमाणस्स वा पुयो । लेण दुक्खेण संमूदो जाई सरह न अप्पणी” ॥
SR No.010093
Book TitleJain Darshan ke Maulik Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Chhaganlal Shastri
PublisherMotilal Bengani Charitable Trust Calcutta
Publication Year1990
Total Pages543
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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