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जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व
प्रसंशी पञ्चेन्द्रिय के दो भेद
अपर्याप्त और पर्याप्त संक्षी पञ्चेन्द्रिय के दो भेद
अपर्याप्त और पर्यात पर्याप्त और अपर्याप्त की संक्षिप्त चर्चा करने के बाद अब हमें यह देखना चाहिए कि जीवों के चौदह मेदों का मूल आधार क्या है ? पर्याप्त और अपर्याप्त दोनों जीवों की अवस्थाएँ हैं। जीवों को जो श्रेणियां की गई हैं उन्हीं के आधार पर ये चवदह भेद बनते हैं। इनमें एकेन्द्रिय जीवों के सिवाय सूक्ष्म
और बादर ऐसा भेद-करण और किमी का नहीं है। क्योंकि एकेन्द्रिय के सिवाय और कोई जीन सूक्ष्म नहीं होते। सूक्ष्म की कोटि में हम उन जीवों को परिगणित करते हैं, जो समूचे लोक में जमें हुए होते हैं, जिन्हें अमि जला नहीं सकती; तीक्ष्ण से तीक्ष्ण शस्त्र छेद नहीं सकते, जो अपनी आयु से जीते है और अपनी मौत से मरते हैं, और जो इन्द्रियों द्वारा नहीं जाने जाते १५॥ प्राचीन शास्त्रों में "सर्व जीवमयं जगत्" इस सिद्धान्त की स्थापना हुई . है वह इन्हीं जीवों को ध्यान में रखकर हुई है। कई भारतीय दार्शनिक परम ब्रह्म को जगत् व्यापक मानते हैं कई आत्मा को सर्वव्यापी मानते हैं और जैन-दृष्टि के अनुसार इन सूक्ष्म जीवों से समूचा लोक व्याप्त है। सबका तात्पर्य यही है कि चेतन-सत्ता लोक के सब भोगों में हैं। कई कृमि, कीट, सूक्ष्म कहे जाते हैं किन्तु वस्तुतः वे बादर-स्थूल है। वे आंखों से देखे जा सकते हैं। साधारणतया न देखें जाएं तो सूक्ष्म दर्शक-यन्त्रों से देखे जा सकते हैं। अतएव उनमें सूक्ष्म जीवों की कोई श्रेणि नहीं। बादर एकेन्द्रिय के एक जीव का एक शरीर हमारी दृष्टि का विषय नहीं बनता। हमें जो एकेन्द्रिय शरीर दीखते हैं, वे असंख्य जीवों के, असंख्य शरीरों के पिण्ड होते हैं। सचित्त मिट्टी का एक छोटा-सा रज-कण पानी की एक बून्द या अग्नि की एक चिनगारीये एक जीव के शरीर नहीं हैं। इनमें से प्रत्येक में अपनी-अपनी जाति के असंख्य जीव होते हैं और उनके असंख्य शरीर पिण्डीभूत हुए. रहते हैं। तथा उस दशा में दृष्टि के विषय भी बनते हैं। इसलिए वे बादर हैं। साधारण वनस्पति के एक, दो, तीन या चार जीवों का शरीर नहीं दीखता क्योंकि उनमें से एक-एक जीव में शरीर-निष्पादन की शक्ति नहीं होती। वे अनन्त जीव मिलकर एक शरीर का निर्माण करते हैं। इसलिए अनन्त जीवों के शरीर